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आत्म-कथा : भाग ३


१८

गोखलेके साथ एक मास----२

गोखलेकी छत्रछायामें रहकर यहां मैंने अपना सारा समय घरमें बैठकर नहीं बिताया।

मैंने अपने दक्षिण अफ्रीकावाले ईसाई-मित्रोंसे कहा था कि भारत मैं अपने देसी ईसाइयोंसे जरूर मिलूंगा और उनकी स्थितिको जानूंगा । कालीचरण बनर्जीका नाम मैंने सुना था। कांग्रेसमें वह आगे बढ़कर काम करते थे, इसलिए उनके प्रति मेरे मनमें आदर-भाव हो गया था। क्योंकि हिंदुस्तानी ईसाई आम तौरपर कांग्रेससे और हिंदुओं तथा मुसलमानोंसे अलग रहते थे, इसलिए जो अविश्वास उनके प्रति था, वह कालीचरण बनर्जीके प्रति न दिखाई दिया। मैंने गोखलेसे कहा कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं। उन्होंने कहा---"वहां जाकर तुम क्या करोगे ? वह हैं तो बहुत भले आदमी, परंतु मैं समझता हूं कि उनसे मिलकर तुम्हें संतोष न होगा । मैं उनको खूब जानता हूं । फिर भी तुम जाना चाहो तो खुशीसे जा सकते हो ।"

मैंने कालीबाबूसे मिलने का समय मांगा। उन्होंने तुरंत समय दिया और मैं मिलने गया । घरमें उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्यापर पड़ी हुई थी । वहां सर्वत्र सादगी फैली हुई थी । कांग्रेसमें वह कोट-पतलून पहने हुए थे, पर घरमें बंगाली धोती व कुरता पहने हुए देखा । यह सादगी मुझे भाई। उस समय यद्यपि मैं पारसी कोट-पतलून पहने हुए था, तथापि उनकी पोशाक और सादगी मुझे बहुत ही प्रिय लगी। मैंने और बातों में उनका समय न लेकर अपनी उलझन उनके सामने पेश की ।

उन्होंने मुझसे पूछा---“आप यह बात मानते हैं या नहीं कि हम अपने पापोंको साथ लेकर जन्म पाते हैं ?"

मैंने उत्तर दिया---" हां, जरूर।"

“तो इस मूल पापके निवारणका उपाय हिंदू-धर्ममें नहीं, ईसाई-धर्ममें है।"