यह कहकर उन्होंने कहा--" पापका बदला है मौत । वाइबिल कहती हैं कि इस मौत से बचनेका मार्य है ईसाकी शरण जाना ।"
मैंने भगवदगीताका भक्ति-भार्ग उनके सामने उपस्थित किया, परंतु मेरा यह उद्योग निरर्थक था। मैंने उनकी सज्जनताके लिए उनको धन्यवाद दिया। मुझे संतोष तो न हुआ, फिर भी इस मुलाकातसे लाभ ही हुआ ।
इसी महीने मैने कलकत्तेकी एक-एक गलीकी खाक छान डाली । प्रायः पैदल ही जाता था। इसी समय में न्यायमूर्ति मित्रसे मिला। सर गुरुदास बनर्जीसे भी मिला । इन सज्जनोंकी सहायता दक्षिण अफ्रीकाके कामके लिए आवश्यक थी । राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जीके दर्शन भी इस समय हुए ।
कालीचरण बनर्जीने मुझसे काली-मंदिरका जिक्र किया था। उसे देखने की प्रबल इच्छा थी । एक पुस्तकमें मैंने वहांका वर्णन भी पढ़ा । सो एक दिन वहां चला गया। न्यायमूर्ति मित्रका मकान उसी मुहल्लेमें था। इस लिए मैं जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन कालीमंदिर गया। रास्ते में बलिदानके बकरोंकी कतार जाती हुई देखी । मंदिरकी गलीमें पहुंचते ही भिखारियोंकी भीड़ दिखाई दी। बाबा बैरागी तो थे ही । उस समय भी मेरा यह नियम था था कि हट्टे-कट्टे भिखारीको कुछ न दिया जाय; पर भिखारी तो बहुत ही पीछे पड़ गये थे ।
एक बाबाजी एक चौतरेपर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाया, “ क्यों बेटा, कहां जाते हो ? ' मैंने यथोचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे तथा मेरे साथीको बैठनेके लिए कहा । हम बैठ गये ।
मैंने पूछा- इन बकरोंके बलिदानको आप धर्म समझते हैं ? "
उन्होंने कहा----" जीव-हत्याको धर्म कौन मानेगा ?"
“तों आप यहां बैठेबैठे लोगोंको उपदेश क्यों नहीं देते ?"
"यह हमारा काम नहीं । हम तो यहां बैठकर भगवद्भक्ति करते हैं।"
"पर आपको भक्तिके लिए यही स्थान मिला, दूसरा नहीं ?"
“ कहीं भी बैठे; हमारे लिए सब जगह एकसी है। लोगोंको क्या, वे तो भेड़-बकरीके झुंडकी तरह हैं, जिधर बड़े हांकें, उधर चले जाये । हम साधुओंको इससे क्या मतलब ? " बाबाजी बोले ।