पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३८
आत्म-कथा : भाग ३


मैंने संवाद आगे न बढ़ाया। इसके बाद हुम मंदिर पहुंचे । सामने लहूकी नदी बह रही थी। दर्शन करनेके लिए खड़े रहने की इच्छा न रही । मेरे मनमें बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ ! मैं छटपटाने लगा । इस दृश्यको मैं अबतक नहीं भुल सका हैं ।

उसी समय बंगाली मित्रोंकी एक पार्टी में मुझे निमंत्रण था । वहां मैंने एक सज्जनसे इसे घातक पूजा-विधिके संबंध में बातचीत की। उन्होंने कहा- “वहां बलिदानके समय खूब नौबत बजती है, जिसकी गुंजमें बकरोंको कुछ मालूम नहीं होता। यह मानते हैं कि ऐसी गूंजमें चाहे जिस तरह मारें, उन्हें तकलीफ नहीं होती ।"

मुझे यह बात न जंची। मैंने कहा--"यदि वे बकरे बोल सके तो। इससे भिन्न बात कहेंगे ।" मेरे मनने कहा-यह घातक रिवाज बंद होना चाहिए ! मुझे बुद्धदेववाली कथा याद आई; परंतु मैंने देखा कि यह काम मेरे सामर्थ्यके बाहर था ।

उस समय इस संबंधमें मेरी जो धारणा हुई वह अब भी मौजूद है। मेरे नजदीक बकरे के प्राणकी कीमत मनुष्यके प्राणसे कम नहीं है। मनुष्य-देहको कायम रखनके लिए बकरेका खून करनेको मैं कभी तैयार न होऊंगा । मैं मानता हैं कि जो प्राणी जितना ही अधिक असहाय होगा, वह मनुष्यकी घातकतासे बचने के लिए मनुष्यके आश्रयका उतना ही अधिक अधिकारी है। परंतु इसके लिए काफी योग्यता या अधिकार प्राप्त किये बिना मनुष्य आश्रय देनेमें समर्थ नहीं हो सकता है। बकरोंको इस क्रूर होमसे बचानेके लिए मुझे जो है उससे बहुत अधिक आत्मशुद्धि और त्यागकी आवश्यकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अभी तो इस शुद्धि और त्यागका रटन करते-करते ही मुझे यह देह छोड़नी पड़ेगी । परमात्मा करे ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष अथवा कोई तेजस्वी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातकसे मनुष्यको बचाये, निर्दोष जीवोंकी रक्षा करे और मंदिरको शुद्ध करे। मैं निरंतर यह प्रार्थना किया करता हूं । ज्ञानी, बुद्धिमान् त्याग-वृत्ति और भावना-प्रधान बंगाल क्योंकर इस वधको सहन कर रहा है ?