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आत्म-कथा : भाग ३


न बैठता था, तथापि मैं इतना अवश्य देख सका कि हिंदुधर्मके प्रति उनका प्रेम अगाध हैं। उनकी पुस्तकें मैने बादको पढ़ीं ।।

अपने दैनिक कार्यक्रम मैने दो विभाग किये थे । आधा दिन दक्षिण अफ्रीकाके कामके सिलसिले में कलकत्तेके नेताओं से मिलने में बिताता और आधा दिन कलकत्तेकी धार्मिक तथा दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखनेमें । एक दिन मैंने डा० मल्लिककी अध्यक्षतामें एक व्याख्यान दिया। उसमें मैंने यह बताया कि बोअर-युद्धके समय हिंदुस्तानियोंके परिचारक-दलने क्या काम किया था । 'इंग्लिशमैन' के साथ जो मेरा परिचय था, वह इस समय भी सहायक साबित हुआ । मि० सांडर्सका स्वास्थ्य इन दिनों खराब रहता था, फिर भी१८९६ की तरह इस समय भी उनसे मुझे उतनी ही मदद मिली । मेरा यह भाषण गोखले को पसंद आया और जब डा० रायने मेरे व्याख्यानकी तारीफ उनसे की तो उसे सुनकर वह बड़े प्रसन्न हुए थे ।

इस तरह गोखलेकी छत्रछाया रहनेके कारण बंगालों मेरा काम बहुत सरल हो गया । बंगालके अग्रणय परिवारोंसे मेरा परिचय आसानीसे हो गया, और बंगालके साथ मेरा निकट संबंध हआ। इस चिरस्मरणीय महीने के कितने ही संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उसी महीने में ब्रह्मदेशमें भी गोता लगा आया था । वहांके फुंगियोंसे मिला। उनके आलस्यको देखकर बड़ा दुःख हुआ । सुवर्ण पेगोड़के भी दर्शन किये । मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं, वे कुछ जंची नहीं । मंदिरके गर्भ-गृहमें चूहोंको दौड़ते हुए देखकर स्वामी दयानंदका अनुभव याद आया । ब्रह्मदेशकी महिलाओंकी स्वतंत्रता और उत्साहको देखकर मुग्ध हो गया और पुरुषोंकी मंदता देखकर दुःख हुआ । उसी समय मैंने देख लिया कि जैसे बंबई हिंदूस्तान नहीं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है; और जिस प्रकार हिंदुस्तानमें हम अंग्रेज व्यापारियोंके कमीशन-एजेंट बन गये है, उसी तरह ब्रह्मदेशमें अंग्रेजोंके साथ मिलकर हमने ब्रह्मदेश वासियोंको कमीशन एजेंट बनाया है ।

ब्रह्मदेशसे लौटकर मैंने गोखलेसे विदा मांगी। उनका वियोग मेरे लिए दुःसह था; परंतु मेरा बंगालको, अथवा सच पूछिए तो यहां कलकत्तेका, काम समाप्त हो गया था ।