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अध्याय २७ : काशीमें


मेरा यह विचार था कि काम लगने से पहले मैं थोड़ा-बहुत सफर तीसरे दर्जे में करू, जिसने तीसरे दर्ज के मुसाफिरोंकी हालतको में जान लें और दु:खों को समझ लूं । गोखलेके सामने मैंने अपना यह विचार रक्खा । पहले पहल तो उन्होंने इसे हंसीमें टाल दिया; पर जब मैंने यह बताया कि इसमें मैंने क्या-क्या बातें सोच रक्खी हैं तब उन्होंने खुशीसे मेरी योजनाको स्वीकार किया । सबसे पहले मैंने काशी जाकर विदुषी ऐनीवेसेंटके दर्शन करता तै किया । वह उस समय बीमार थीं ।

तीसरे दर्जे की यात्राके लिए मुझे नया साज-सामान जुटाना था। पीतलका एक डिब्बा गोखलेने खुद ही दिया और उसमें मेरे लिए मगदके लड्डू और पूरी रखवा दीं । बारह आनेका एक कैनवासका बैग खरीद । छाया (पोरबंदरके नजदीकके एक गांव) के ऊनका एक लंवा कोट बनवाया था। बैगमें यह कोट, तौलिया, कुरते और धोनी रक्खे । ओढ़नेके लिए एक कंबल साथ लिया। इसके अलावा एक लोटा भी साथ रक्खा था । इतना सामान लेकर मैं रवाना हुआ ।

गोखले और डा० राय मुझे स्टेशन पहुंचाने आये । मैंने दोनोंसे अनुरोध किया था कि वे न आवें; पर उन्होंने एक न सुनी । “तुम यदि पहले दर्जेमें सफर करते तो में नहीं आता; पर अब तो जरूर चलेगा ।" —गोखले बोले ।

प्लेटफार्मपर जाते हुए गोखलेको तो किसीने न रोका । उन्होंने सिरपुर अपनी रेशमी पगड़ी बांधी थी और धोती तथा कोट पहना था । डा० राय बंगाली लिबासमें थे, इसलिए टिकट बाबूने अंदर आते हुए पहले तो रोका; पर गोखलेंने कहा, “मेर मित्र हैं।" तब डा० राय भी अंदर आ सके। इस तरह दोनोंने मुझे विदा दी ।

२०

काशीमें

यह सफर कलकतेसे राजकोट तकका था । इसमें काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर होते हुए राजकोट जाना था । इन स्थानोको देख लेने के सिवा अधिक समय नहीं दे सकता था । एक जगह मैं एक-एक दिन रहा।