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आत्म-कथा: भाग ३


पालनपुरको छोड़कर और सब जगह में यात्रियों की तरह धर्मशाला में या पंडोंके मकान पर ठहरा था। जहां तक मुझे याद है, इस यात्रा रेल-किराये सहित इकत्तीस रूपये लगे थे। तीसरे दर्जेमें प्रवास करते हुए भी मैं अक्सर डाकगाड़ी में नहीं जाता था; क्योंकि मैं जानता था कि उसमें भीड़ ज्यादा होती है और तीसरे दर्जेके किरायेके हिसाबसे वहां पैसे भी अधिक देने पड़ते थे। मेरे लिए यह अड़चन भी

तीसरे दर्जे के डिब्बों में जो गंदगी और पाखानोंकी बुरी हालत इस समय है , वही पहले भी थी। शायद इन दिनों कुछ सुधार हो गया हो; पर तीसरे और पहले दर्जेकी सुविधाओंमें जो अंतर है वह इन दर्जोंके किरायेके अंतरकी अपेक्षा बहुत अधिक मालूम हुआ। तीसरे दर्जेके यात्री तो मानो भेड़-बकरी होते हैं, और उनके बैठनेके डिब्बे भी भेड़-बकरियोंके लायक होते हैं। यूरोपमें तो मैंने अपनी सारी यात्रा तीसरे दर्जे में ही की थी; केवल अनुभवके लिए एक बार में पहले दर्जेमें बैठा था; पर वहां मुझे पहले और तीसरे दर्जे के बीच यहांका-सा अंतर न दिखाई दिया । दक्षिण अफ्रीका में तो तीसरे दर्जेके डिब्बोंके मुसाफिर प्रायः हबशी लोग होते हैं ; पर फिर भी वहां के तीसरे दर्जे के डिब्बोंमें अधिक सुविधा रहती है। कहीं-कहीं तो मुसाफिरोंके लिए तीसरे दर्जे के डिब्बोंमें सोनेका भी प्रबंध है, और बैठकोपर गद्दी भी लगी रहती है। प्रत्येक खानेमें बैठनेवाले यात्रियोंकी संख्याकी मर्यादा का पालन किया जाता है; पर यहां तो मुझे कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि यात्रियोंकी संख्याकी इस मर्यादाका पालन किया जाता हो ।

रेलवे-विभागकी इन असुविधाओंके अलावा यात्रियों की खराब आदतें सुघड़ यात्रियों के लिए तीसरे दर्जेकी यात्राको दंड-स्वरूप बना देती हैं। चाहे जहां थूक दिया, जहां चाहा कचरा फेंक दिया, जब जीमें पाया और जिस तरह चाहा बीड़ी पूंकने लगे, पान और जरदा चबाकर जहां बैठे हों वहीं पिचकारी लगा दी, जूठन वहीं फर्श पर डाल दी, जोरजोरसे बातें करना, पास बैठे मनुष्यकी परवा न करना और गंदी भाषा बगैरा, यह तीसरे दर्जेका ग्राम अनुभव है ।

तीसरे दर्जेकी मेरी १९२०ई०की यात्राके अनुभवमें और १९१५से १९१९ तकके दूसरी बारके अखंड अनुभवमें मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई दिया। इस महा व्याधिका तो मुझे एक ही उपाय दिखाई देता है। वह यही कि