पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५३
अध्याय २३ : फिर दक्षिण अफ्रिका


मैं पानेको तैयार हूं।" उन्होंने तत्काल रुपये भेजे और मैं आफिस समेटकर वहां रवाना हो गया ।

मैंने सोचा था कि मुझे वहां एक वर्ष तो यो लग जायगा। अत: बंगला रहने दिया और बाल-बच्चोंको भी वहीं रखना ठीक समझा ।

मैं यह मानता था कि जो युवक देसमें कमाई न करते हों और साहसी हों, उन्हें विदेशोंमें जाना चाहिए। इसलिए मैं अपने साथ चार-पांच युवकोंको भी ले गया। उनमें मगनलाल गांधी भी थे।

गांधी-कुटुंब बड़ा था, आज भी है। मेरी इच्छा थी कि उसमें से जो लोग स्वतंत्र होना चाहें, वे स्वतंत्र हो जायं। मेरे पिता कइयोंका निर्वाह करते थे; पर वह थे रजवाड़ोंकी नौकरीमें; मैं चाहता था कि वह इस नौकरीसे निकल सकें तो ठीक हो । यह हो नहीं सकता था कि मैं उन्हें दूसरी नौकरी दिलवानेका यत्न करता। शक्ति होनेपर भी इच्छा न थी। मेरी धारणा तो यह थी कि वह स्वयं और दूसरे भी स्वावलंबी बनें तो अच्छा । पर अंतमें तो ज्यों-ज्यों मेरे आदर्श आगे बढ़े (यह मैं मानता हूं) त्यों-त्यों उन युवकोंके आदर्शको बनाना भी मैंने आरंभ किया। उनमें मगनलाल गांधीको बनाने में मुझे बड़ी सफलता मिली--पर इस विषयपर आगे चल कर लिखा जायगा।

बाल-बच्चोंका वियोग, जमा हुआ काम तोड़ देना, निश्चिततासे अ- निश्चिततामें प्रवेश करना--यह सब क्षणभरके लिए खटका; पर मैं तो अनिश्चित जीवनका आदी हो गया था। इस दुनिया में ईश्वर या सत्य, कुछ भी कहिए, उसके सिवा दूसरी कोई चीज निश्चित नहीं। यहां निश्चितता मानना ही नम है। यह सब जो अपने आसपास हमें दिखाई पड़ता है और बनता रहता है, अ- निश्चित और क्षणिक है ; उसमें जो एक परमतत्व निश्चित-रूपसे छिपा हुआ है, उसकी जरा-सी 'झलक' ही मिल जाय और उसपर श्रद्धा बनी रहे, तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता है। उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ हैं ।

मैं डरबन एक दिन भी पहले पहुंचा, यह नहीं कहा जा सकता। मेरे लिए तो काम तैयार ही रक्खा था। मि० चेंबरलेनसे मिलनेवाले डेप्यूटेशनकी तारीख तय हो चुकी थी। मुझे उनके सामने पढ़ने के लिए निवेदनपत्र तैयार करना था और डेप्यूटेशनके साथ जाना था ।