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आत्म-कंथा : भाग ४

अपने-अप मिल जाता था। पर अब जबकि यहां एशियाके कर्मचारियोंका दौरदौरा हुआ तब तो यहां जैसी ‘जो-हुक्मी' और खटपट वगैरा बुराइयां भी उसमें श्रा घुसीं । दक्षिण अफ्रीकामें एक प्रकारकी प्रजासत्ता थी; पर अब तो एशिया । सलहों ने नावही । ई; बोंकि चिदा त अामा थी नहीं; बल्कि उल्टे सर प्रजापर ही ई थी। इसके विपन्न द}ि अका गोरे र बन्दाकर यह ग थे, इसलिए वे वहां प्रजाजन हो गये थे और इसुनिए २-कन्नारियर का कुश रहता था: पर अब इस मिले थे एशियाके निरंकुश राज-कर्मचारी, जिन्होंने बेचारे हिंदुस्तान लोगी हालत सौतेमें सुपारीक तरह करदी थी । मुझे भी इस सत्ताका खासा अनुभव हो गया। पहले तो मैं इस महकमेकै बड़े अफसरके पास तलब किया गया। यह साहब लंकासे आये थे । 'तलब किया गया' अरे इन शब्दोंमें नहीं अत्युक्तिका आभास न हो; इसलिए अपना आशय जरा ज्यादा स्पष्ट कर देता हूं। मैं चिट्ठी लिखकर नहीं बुलाया गया था । मुझे यहांके प्रमुख हिंदुस्तानियों यहां तो निरंतर जाना ही पड़ता था। स्वर्गीय सेट तैयब हाजी खानमोहम्मद भी ऐसे अगुश्रश्रोंसे थे। उनसे इन साहबने पूछा----“यह गांधी कौन है ? यहां किसलिए अाथ है ? तैयब सेठने जवाड़ दिया, “ वह हमारे सलाहकार हैं और हमारे बुलानेपर यहां आये हैं।" “तो फिर हम सब यहां किस कामके लिए है ? क्या हमारी जरूरत . यहां आपकी रक्षाके लिए नहीं हुई है ? गांधी यहां का हाल क्या जाने ?' साहब ने कहा। तैयय सेठने जैसे-तैसे करके इस प्रहारक भी जवाब दिया----“हां, आप तो हैं ही; पर गांधीजी तो हमारे ही अपने ठहरे न ? वे हमारी भाषा जानते हैं, हमारे भावोंको, हमारे पहलुको समझते हैं। और आप लोग आखिर हैं तो राज-कर्मचारी ही न ?” इसपर साहबने हुक्म फरमाया---- “गांधीको मेरे पास ले अइना ।” तैयब' सेठ वगैराके साथ में साइबसे लिने आया । इहां हुम लोगोंको कुर्सी तो भला मिल ही कैसे सकती थी ? सबको खड़े-खड़े ही बातें करनी पड़ी ।