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अध्यार्थ ३ : जहरकी पूंट पीनी पड़ी। ३५९
- कहिए. आप यहां किस गरजने आये हैं ? सावने मेरी ओर अख उकिर पुछा ।
- मेरे इन भाइयों के बुलानेसे. इन्हें सलाह देनेके लिए आया हूं ।' मैंने उत्तर दिया ।
“एर आप जानते नहीं कि आपको यहां आनेका कतई हक नहीं है ? अापको जो परवाना मिला है वह तो भूलसे दे दिया गया है। अाप यहांके बाशिंदो तो है नहीं। आपको वापस लौट जाना पड़ेगा। ग्राप मि० चैवरलेनसे नहीं मिल सकते । यहांके हिंदुस्तानियोंकी हिफाजतके ही लिए तो हमारा यह महकमा खास तौरपर खोला गया है। अच्छा तो, आप जाइए । इतना कहकर साहबने मुझे बिदा किया है और तो ठीक'; पर मुझे जवावतक देने का अवसर न दिया । पर मेरे साथियोंको उन्होंने रोक रक्खा और धमकाया। कहा कि गांधीको टूसिवालसे विदा कर दो । वे सबै अपना-सा मुंह लेकर वापस अये । अब मेरे सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई और सो भी इस तरह अचानक ! जहरकी पूंट पीनी पड़ी इस अपमानसे मेरे दिलको बड़ी चोट पहुंची; पर इससे पहले मैं ऐसे अपमान सहन कर चुका था; तो उसका कुछ आदी हो रहा था । अतएव इस अपमान की परवा न करके तटस्थ-भादसे जो कुछ कर्तव्य दिखाई पड़े उसे करने का निश्चय मैंने किया। इसके बाद पूर्वोक्त अफसरकी सही-से एक चिट्ठी मिली कि डरबनमें मि० चैंबरलेन गांधीजी से मिल चुके हैं, इसलिए अब इनका नाम प्रतिनिधियोंमेंसे निकाल डालना जरूरी हैं ।। मेरे साथियोंको यह चिट्ठी' बड़ी ही नागवार लेगी। उन्होंने कहा--- "तो ऐसी हालत हमें शिष्ट-मंडल ले जानेकी भी जरूरत नहीं । तब मैंने उन्हें यहांके लोगोंकी विषम् अवस्थाका भली प्रकार परिचय कराया---