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आत्म-कथा : भाग ४

“यदि आप लोग मि० चैंबरलेनसे मिलने न जायंगे तो इसका यह अर्थ किया जायगा कि यहांपर किसी किस्मका जुल्म नहीं है, फिर जबानी तो कुछ कहना है नहीं, लिखा हुआ पढ़ना है सो तैयार है, मैंने पढ़ा क्या, और दूसरोंने पढ़ा क्या ? मि० चैंबरलेन वहां उसपर बहस थोड़े ही करेंगे । मेरा जो कुछ अपमान हुआ है उसे हम पी जायं, बस ।” इतना मैं कह ही रहा था कि तैयब सेठ बोल उठे-- “परं अापका अपमान क्या सारी कौमका अपमान नहीं है ? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि आप हमारे प्रतिनिधि हैं ?” मैंने कहा--“आपका कहना तो ठीक है; पर ऐसे अपमान तो कौमको भी पी जाने पड़ेंगे—बताइए, हमारे पास इसका दूसरा इलाज ही क्या है ?” “जो-कुछ होना होगा, हो जायगा । पर खुद-ब-खुद हम और अपमान क्यों माथे लें ? मामला बिगड़ तो यों भी रहा ही है । और हमें अधिकार भी ऐसे कौन-से मिल गये हैं ?” तैयब सेठने उत्तर दिया । तैयब सेठका यह जोश मुझे पसंद तो आ रहा था; पर मैं यह भी देख रहा था कि उससे फायदा नहीं उठाया जा सकता । लोगोंकी मर्यादाका अनुभव मुझे था । इसलिए इन साथियोंको मैंने शांत करके उन्हें यह सलाह दी कि मेरे बजाय आप ( अब स्वर्गीय ) जार्ज गाडफ्रे को साथ ले जाइए । वह हिंदुस्तानी बैरिस्टर थे । इस तरह श्री गाडफ्रेकी अध्यक्षतामें यह शिष्ट-मंडल मि० चैंबरलेनसे मिलने गया। मेरे बारेमें भी मि० चैंबरलेनने कुछ चर्चा की थी । 'एक ही आदमीकी बात दुबारा सुननेकी अपेक्षा नये आदमीकी बात सुनना मैंने ज्यादा मुनासिब समझा--' आदि कहकर उन्होंने जख्मपर मरहमपट्टी करनेकी कोशिश की । पर इससे मेरा और कौमका काम पूरा होनेके बजाय उलटा बढ़ गया । अब तो फिर 'अ-आ, इ-ई' से शुरूआत करनेकी नौबत आ पहुंची । आपके ही कहनेसे तो हम लोग इस लड़ाई-झगड़ेमें पड़े । और आखिर नतीजा यही निकला ! इस तरह ताना देनेवाले भी अा ही धमके । पर मेरे मनपर इनका कुछ असर न होता था । मैंने कहा—— “मुझे तो अपनी सलाहपर पश्चात्ताप नहीं होता । मैं तो अब भी यह मानता हूं कि हम इस काम में पड़े, यह अच्छा ही