पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२८२

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२६२ त्मिकथ? : भव ४ . त्याग-भावकी वृद्धि ट्रांसवालमें लोगोंके हकोंकी रक्षाके लिए किस तरह लड़ना पड़ा और एशियाई महकमे के अधिकारियोंके साथ किस तरह पेश आना पड़ा; इसका अधिक वर्णन करनेके पहले मेरे जीवनके दूसरे पहलूपर नजर डाल लेनेकी आवश्यकता है। अबतक कुछ-न-कुछ धन इकट्ठा कर लेनेकी इच्छा मनमें रहा करती थी। मेरे परमार्थके साथ यह स्वार्थका मिश्रण भी रहता था । । | बबईम जब मैंने अपना दफ्तर खोला था त एक अमरीकन बीमा-एजेंट म झसे मिलने आया था । उसका चेहरा खशनमा था। उसकी बातें वडी मीठी थीं। उसने मुझसे मेरे भाबी काल्या की बातें इस तरह कीं, मानो वह मेरा कोई बहन दिनोंका मित्र हो । “अमरीकामें तो आपकी हैसियतके सब लोग अपनी जिंदगीका बीमा करवाते हैं। आपको भी उनकी तरह अपने भविष्यके लिए निश्चित हो जाना चाहिए। जिदगीका आखिर क्या भरोसा ? हम अमरीकावासी तो बीमा कराना एक धर्म समझते हैं, तो क्या आपको में एक छोटी-सी पालिसी करानेके लिए भी न ललचा सकू ?" अबतक क्या हिंदुस्तानमें और क्या दक्षिण अफ्रीकामें कितने ही एजेंट मेरे पास आये; पर मैंने किसीको दाद न दी थी; क्योंकि मैं समझता था कि बीमा कराना मानो अपनी भीरुताका और ईश्वरके प्रति अविश्वासका परिचय देना था; पर इस बार में लालचमें आ गया। वह एजेंद ज्यों-ज्यों अपना जादू घुमाता जाता, त्यों-त्यों मेरे सामने अपनी पत्नी और पुत्रोंकी तस्वीर खड़ी होने लगी । मनमें यह भाव उठा कि “अरे, तुमने पत्नीके लगभग सब गहने-पत्ते बेच डाले हैं। अब, अगर यह शरीर कुछ-का-कुछ हो जाय तो इन पत्नी और बाल-बच्चोंके भरणपोषणका भार आखिर तो उसी गरीब भाईपर न जा पड़ेगा जो आज तुम्हारे पिताके स्थानकी पूर्ति कर रहा है. और खूबीके सार कर रहा है ? क्या यह उचित होगा ?" इस तरह मैंने अपने मनको समझा कर १०,००० ) का बीमा करा लिया ।