पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२८३

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अध्याय ४ : त्याग-भावकी वृद्धि र दक्षिण अफ्रीका में मेरे मनकी यह हालतु न रह गई थी और मेरे विचार भी बदल गये थे। दक्षिण अफ्रीकाकी लई झापत्तिके समय मैंने जोकुछ किया ईश्वरको साक्षी रखकर ही किया था। मुझे इस बातकी कुछ खबर न श्री कि दक्षिणु अझीझमें मुझे कितने समय रहना पड़ेगा। मेरी तो यह धारणा हो गई थी कि अद में हिंदुस्तानको वापस न लौट पाऊंगा। इसलिए मुझे बालबच्चों को अपने साथ ही रखना चाहिए। उनको अब अपनेसे दूर रखना उचित नई। उनके भरण-पोषणका प्रबंध भी दक्षिण अफ्रीका में ही होना चाहिए । यह विचार मतभें आते ही वह पालिसी उलटे मेरे दु:खका कारण बन गई। मुझे ममें इस बातपर शर्म आने लगी कि मैं उस एजेंटके चक्करमें कैसे आ गया। स ने इस विचारको अपने मन में स्थान ही कैसे दिया कि जो भाई मेरे लिए पिताके बराबर हैं उन्हें अपने सगे छोटे भाईकी विधवाका बोझ नागवार होगा ? और यह भी कैसे मान लिया कि पहले तुम ही मर जाम्रो ? आखिर सबका पालन करनेवाला तो वह ईश्वर ही है। न तो तुम हो, न तुम्हारे भाई हैं। बीमा करना लुमने अपने बाल-बच्चोंको भी पराधीन बना दिया। वे क्यों स्वावलंबी नहीं हो सकते ? इन असंख्य गरीबों के बाल-बच्चोंका आखिर क्या होता है ? तुम अपने को उन्हींके-जैसा क्यों नहीं समझ लेते ?” | इस प्रकार मनमें विचारोंकी धारा बहने लगी; पर उसके अनुसार व्यवहार सहसा ही नहीं कर डाला । मुझे ऐसा याद पड़ता है कि बीमेकी एक किस्त तो मैंने दक्षिण अकीकासे भी जमा कराई थी । । परंतु इस विचार-धाराको बाहरी उत्तेजन मिलता गया दक्षिण अफ्रीकाकी पहली यात्रा समय मैं ईसाइयोंके दाताबरणमें कुछ शा चुका था और उसके फल-स्वरूप धर्म के विषयों जाग्रत रहने लगा। इस बार थियांसफीके वातावरणमें आया । मि० रीच थियॉसफिस्ट थे। उन्होंने जोहान्सबर्गकी सोसाइटीसे मेरा संबंध करा दिया । मेरा थियॉसफीके सिद्धांतोंसे मत-भेद था, इसलिए मैं उसका सदस्य तो नहीं बना; पर फिर भी लगभग प्रत्येक थियॉसफिस्टसे मेरा गाढ़ा परिचय हो गया था। उनके साथ रोज धर्म-चच हुशा करती'। थियॉसफीकी पुस्तकें पढ़ी जातीं और उनके मंडल कभी-कभी मुझे बोलना भी पड़ता । थियॉसफीमें भ्रातृ-भाव पैदा करना और बढ़ाना मुख्य बात है । इस' विषयपर हम बहुत चर्चा