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अध्याय ४ : पतिदेव


और उचित ही मालूम होती थीं। क्योंकि एक तो विवाहकी उत्सुकता थी और दूसरे पिताजी जो-कुछ करते थे वह सब उस समय ठीक ही जान पड़ता था। अतः उस समयकी स्मृति आज भी मेरे मनमें ताजा है।

हमारा पाणि-ग्रहण हुआ, सप्तपदीमें वर-वधू साथ बैठे, दोनोंने एक-दूसरेको कसार खिलाया,और तभीसे हम दोनों एक साथ रहने लगे। ओह, वह पहली रात। दो अबोध बालक बिना जाने, बिना समझे, संसार-सागरमें कूद पड़े। भाभीने सिखाया कि पहली रातको मुझे क्या-क्या करना चाहिए। यह याद नहीं पड़ता कि मैंने धर्म-पत्नीसे यह पूछा हो कि उन्हें किसने सिखाया था। अब भी पूछा जा सकता है; पर अब तो इसकी इच्छातक नहीं होती। पाठक इतना ही जान लें कि कुछ ऐसा याद पड़ता है कि हम दोनों एक-दूसरेसे डरते और शरमाते थे। मैं क्या जानता कि बातें कैसे व क्या-क्या करें? सिखाई बातें भी कहांतक मदद कर सकती हैं? पर क्या ये बातें सिखानी पड़ती हैं? जहां संस्कार प्रबल हैं, वहां सिखाना फिजूल हो जाता है। धीरे-धीरे हमारा परिचय बढ़ता गया। आजादीके साथ एक-दूसरेसे बोलने-बतलाने लगे। हम दोनों हम-उम्र थे, फिर भी मैं पतिदेव बन बैठा।

पतिदेव

जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, छोटेछोटे निबंध-पैसेपैसे या पाईपाईके सो याद नहीं पड़ता-छपा करते। इनमें दाम्पत्य प्रेम, मितव्ययता, बाल-विवाह इत्यादि विषयोंकी चर्चा रहा करती। इनमेंसे कोई-कोई निबंध मेरे हाथ पड़ता और उसे मैं पढ़ जाता। शुरूसे यह मेरी आदत रही कि जो बात पढ़नेमें अच्छी नहीं लगती उसे भूल जाता और जो अच्छी लगती उसके अनुसार आचरण करता। यह पढ़ा कि एक-पत्नी-व्रतका पालन करना पतिका धर्म है। बस, यह मेरे हृदयमें अंकित हो गया। सत्यकी लगन तो थी ही। इसलिए पत्नीको धोखा या भुलावा देनेका तो अवसर ही न था। और यह भी समझ चुका था कि दूसरी स्त्रीसे संबंध