पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२९३

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अध्याय ८ : एक चेतावनी इस पुस्तकको मैंने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखा है, जिस तरह कि मैने और लेख भी लिखे हैं और यही धर्म-भाव मेरे प्रत्येक कार्यमें आज भी वर्तमान है। इसलिए इस बातपर मुझे बड़ा खेद रहता है और बड़ी शर्मं मालूम होती हैं कि आज मैं उसमें से कितने ही विचारोंपर पूरा अमल नहीं कर सकता हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य जबतक बालक रहता है उन्नत भातका जितना दुध पी लेता है, उसके अलावा फिर उसे दूसरे दूधकी आवश्यकता नहीं है। मनुष्यका भोजन हरे और सूखे यत-पके फलझे सिवा और दूसरा नहीं हैं। बादामाद बीज तथा अंगूरादि फलोसे उसे शरीर और बुद्धि पोषणके लिए झवश्यक द्रव्य मिल जाते हैं। जो मनुष्य ऐसे भोजनपर रह सकता है उसके लिए ब्रह्मचर्यादि अात्म-संयम बहुत आसान हो जाता है। जैसा आहार तैसी डकार', *जैसा भोजन तैसा जीवन इस कहावतमें बहुत तथ्य है । यह मेरे तथा मेरे साथियों अनुभवकी बात है। इन विचारोंका सविस्तर प्रतिपादन मैंने अपनी आरोग्यसंबंधी उपर्युक्त पुस्तकमें किया है । परंतु मेरी तकदीरमें यह नहीं लिखा था कि हिंदुस्तान में अपने प्रयोगोंको भुर्णतातक पहुंचा दें । छेड़ा जिलेमें सैन्य भर्ती का काम कर रहा था कि अपनी एक भूलकी बदौलत मृत्यु-शयापर जा पड़ा। विना दूधके जीवित रहने लिए मैंने अबतक बहुतेरे निबफल प्रयत्न किये हैं। जिन-जिन वैद्य-डाक्टरों और रसायनशास्त्रियोंसे मेरी जान-पहचान श्री, उन सबसे मैंने मदद मांगी । किसीने मुंगका पानी, किसीने महुरका तेल, किसीने बादामका दुध बुझायो । इन तमाम चीजों का प्रयोग करते हुए मैंने अपने शरीर निचोड़ डाला; परंतु उनसे मैं गथ्यासे न उठ सका ।। वैद्यने तो मुझे चरक इत्यादिसे ऐसे प्रमाण भी खोजकर बताये कि रोगनिवारणके लिए खाद्याखाच दोष नहीं, और काम पड़ने पर भसादि भी खा सकते हैं। ये वैद्य भला मुझे दूध त्यागनेपर मजबूत बने रहने में कैसे मदद दे सकते थे ? जहां 'बीफ टी’ और ‘बांड भी जायज समझी जाती हो, वहां मुझे दूधत्यागमें कहां मदद मिल सकती है ? गाय-भैंसका दूध तो मैं ले ही नहीं सकता था; क्योंकि मैंने अत ले रखा था । ब्रसका हेतु तो यहीं था कि इध-मात्र छोड़ दें। परंतु ब्रत लेते समय मेरे सामने गाय और भैंस माता ही थी, इस कारण था जीवित