पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२९५

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अध्याय ६ : जबरदस्त मुकाबला २६१ जबरदस्तसे मुकाबला अव एशियाई कर्मचारियोंकी अोर निगाह डालें । इन कर्मचारियोंका सबसे बड़ा थाना जोहान्सबर्ग में था ! मैं देखता था कि इन थानों. हिंदुस्तानी, चीनी आदि लोगोंका रक्षा नहीं, बल्कि भक्ष होता था। मेरे पास रोज शिकायतें आती--- “जिन लोगोंको अानेका अधिकार है वे तो दाखिल नहीं हो सकते और जिन्हें अधिकार नहीं है वे सौ-सौ पौंड देकर आते रहते हैं। इसका इलाज यदि आप न करेंगे तो कौन करेगा ?" मेरा भी मन भीतर यही कहता था। वह बुराई यदि दूर न हुई तो मेरा सबालमें रहना बेकार समझना चाहिए । मैं इसके सबूत इकट्ठे करने लगा। जब मेरे पास काफी सबूत जमा हो गए तब में पुलिस-कमिश्नरके पास पहुंचा ! मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें दया और न्यायका भाव है। मेरी बातोंको एकदम उड़ा देनेके बजाय उसने मन लगाकर सुनी और कहा कि इनका सबूत पेश कीजिए । मैंने जो गवाह पेश किये उनके बयान उसने खुद लिये ! उसे मेरी बात का इतमीनान हो गया; परंतु जैसा कि मैं जानता था वैसे ही वह भी जानता था कि दक्षिण अफ्रीकाम् गोरे पंचोके द्वरा गोरे अपराधियोको दंड दिलाना मुश्किल था; पर उसने कहा--- “ लेकिन फिर भी हमें अपनी तरफसे तो कोशिश करनी चाहिए। इस भयसे कि ये अपराधी ज्युरीके हाथों छूट जायंगे, उन्हें गिरफ्तार न कराना भी ठीक नहीं। मैं तो उन्हें जरूर पकड़वा लूंगा ।" | मुझे तो विश्वास था ही । दूसरे अफसरोंके ऊपर भी मुझे शक तो था; लेकिन मेरे पास उनके खिलाफ कोई सबल प्रमाण नहीं था । दोके विषयमें तो मुझे लेशमात्र संदेह न था। इसलिए उन दोनों नाम वारंट जारी हुए । मेरा काम तो ऐसा ही था, जो छिपा नहीं रह सकता था । बहुत-से लोग यह देखते थे कि मैं प्रायः रोज पुलिस-कमिश्नरके पास जाता हैं । इन द कर्मचारियोंके छोटे-बड़े कुछ जासूस लगे ही रहते थे। वे मेरे दफ्तरके आसपास मंडराया करते और मेरे आने-जानेके समाचार उन कर्मचारियोंको सुनाते रहते ।