पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/२९६

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२७६ आ-कथा : भाग ४ यहां मुझे यह भी कह देना चाहिए कि उन कर्मचारियोंकी ज्यादती यहांतक बढ़ गई कि उन्हें बहुत जासूस नहीं मिलते थे। हिंदुस्तानियों और चीनियोंकी यदि मुझे मदद न मिलती तो ये कर्मचारी नहीं पकड़े जा सकते थे । | इन दो कर्मचारियोंमें से एक भाग निकला। पुलिस कमिश्नरने उसके नाम वाहका वारंट निकालकर उसे पकड़ मंगाया और मुकदमा चला। सबूत भी काफी पहुंच गया था । इधर ब्यूरीके पर एकके 7 जानेको त प्रमाण भी था। फिर भी वे दोनों बरी हो गये । । इससे में स्वभावत: बहुत निराश हुआ। पुलिस-कमिश्नरको भी दुःख हुआ । वकीलोंके रोजगारके प्रति मेरे मनमें घृणा उत्पन्न हुई । बुद्धिका उपयोग अपराधको छिपाने में देख मुझे यह बुद्धि ही खलने लगी ।। उन दोनों कर्मचारियोंके अपराधकी शोहरत इतनी फैल गई थी कि उनके छूट जानेपर भी सरकार उन्हें अपने पदपर न रख सकी। वे दोनों अपनी जगहसे निकाले गये । इससे एशियाई थाने की गंदगी कुछ कम हुई और लोगोंको भी अब धीरज बंधा और हिम्मत भी आई ।। . इससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गई है मेरी वकालत भी चमकी । लोगोंके में सैकड़ों पौंड रिश्वतसे जाते थे, वे सबके सब नहीं तो भी बहुत अधिक बच । ए । रिश्वतखोर तो अब भी हाथ मार ही लेते थे; पर यह कहा जा सकता है। कि ईमानदार लोगोंके लिए अपने ईमानको कायम रखने की सुविधा हो गई थी । | वे कर्मचारी इतने अधम थे; लेकिन, मैं कह सकता हैं, उनके प्रति मेरे मनमें कुछ भी व्यक्तिगत दुभव नहीं था। मेरे इस स्दैवको वे जानते थे और जब उनकी असहाय अवस्थामें सहायता करनेका मुझे अवसर मिला तो मैंने उनकी सहायता भी की है। जोहान्सबर्गको म्युनिसिपैलिटीमें यदि मैं उनका विरोध न करू तो उन्हें नौकरी मिल सकती थी। इसके लिए उनका एक मित्र मुझसे मिला और मैंने उन्हें नौकरी दिलाने में मदद करना मंजूर किया । और उनकी नौकरी लग भी गई ।। इसका यह असर हुआ कि जिन गोरे लोगोंके संपर्क में आया ने मेरे विषयमें निःशंक होने लगे । यद्यपि उनके महकमोंके विरुद्ध मुझे कई बार लड़ना पंड़ता, कठोर शब्द कहने पड़ते, फिर भी वे मेरे साथ मधुर संबंध रखते :