पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३०२

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| इन बातोंपर जत्र विचार उठने लगते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि इन अध्यायोंको लिखनेका विचार स्थगित कर दिया जाय तो क्या ठीक न होगा ? परंतु जबतक यह साफ तौरपर न मालूम हो कि स्वीकृत अथवा आरंभित कार्य अनीतिमय है तब्त उसे न छोड़ना चाहिए । इस न्यायके अधारपर जबतक अंतरात्मा सुझे न रोके तबतक इन अध्यायोंको लिखते जानेका निश्चय कायम रखता हूँ । | यह कथा टीकाकाको संतुष्ट करनेके लिए नहीं लिखी जाती है । सत्यके प्रयोगोंमें इसे भी एक प्रयोग ही समझ लेना चाहिए । फिर इसमें यह दृष्टि तो है ही कि मेरे सात्रियोंको इसके द्वारा कुछ-न-कुछ आश्वासन मिलेगा । इसका प्रारंभ ही उनके संतोष के लिए किया है। स्वामी आनंद और जयरामदास मेरे पीछे न पड़ते तो इसकी शुरुआत भी शायद ही हो पाती ! इस कारण यदि इस कथा लिखने में कुछ बुराई होती हो तो इसके दोष-भागी वे भी हैं ।। अब इस अध्यायके मूल विषयपर आता हूं। जिस तरह मैंने हिंदुस्तानी कारकुनों तथा दूसरे लोगों को अपने घरमें बतौर कुटुंबीके रक्खा था, उसी तरह अंग्रेजों को भी रखने लगा । मेरा यह व्यवहार मेरे साथ रहने वाले दूसरे लोगोंके लिए अनुकूल न था; परंतु मैंने उसकी परवा न करके उन्हें रक्खा । यह नहीं कहा जा सकता कि सबको इस तरह रखकर मैंने हमेशा बुद्धिमानीका ही काम किया है। कितने ही लोगोंसे ऐसा संबंध बांधनेका कटु अनुभव भी हुआ है; परंतु ऐसे अनुभव तो क्या देशी या क्या विदेशी सबके संबंधमें हुए हैं। उन कटु अनुभवोंपर मुझे पश्चात्ताप नहीं हुआ है। कटु अनुभवोंके होते रहते भी और यह जानते हुए भी कि दूसरे मित्रोंको असुविधा होता है, उन्हें कष्ट सुहाना पड़ता है, मैंने अपने इस रवैयेको नहीं बदला, और मित्रोंने मेरी इस ज्यादतीको उदारतापूर्वक सहन किया है । नये-नये लोगोंसे बांधे गये ऐसे संबंध जब-जब मित्रों लिए कष्टदायी साबित हुए हैं तब-तब उन्हींको मैंने बेखटके कोसा है; क्योंकि मैं यह मानता हूं कि आस्तिक मनुष्य तो अपने अंतरस्थ ईश्वरको सबमें देखना चाहता है और इसलिए उसके अंदर सबके साथ अलिप्ततासे रहनेकी क्षमता अवश्य आनी चाहिए और उस शक्तिको प्राप्त करने का उपाय ही यह है कि जब-जब ऐसे अनचाहे अबसर आवें तब-तब उनसे दूर न्द्र भागते हुए नये-नये संबंधोंमें पड़े और फिर भी