पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अध्याय १५ : सहामारी–१ बहु-संग्ग्रक भारतवासियोंके गाढ़ संपर्क में आया और मैं केवल उनका वकील ही नहीं, बल्कि भाई बनकर रहा और उनके तीनों प्रकार दुःखोंमें उनका काझी हुआ । सेठ अब्दुल्लरने मुझे 'गांधी' नाम संबोवन करने से इन्कार कर दिया । और साहब तो मुझे कहता र मानता ही कौन ? इसलिए उन्होंने एक बड़ा ही प्रिय शब्द ढूंढ निकाला । मुझे दे लो भाई' कहकर पुकारने लगे। यह नाम अंततक दक्षिण अफ्रीका में चला । पर जब ये गिरमिटमुक्त भारतीय मुझे भाई कहकर बुलाते तब मुझे उसमें एक खास मिठास मालूम होत श्रीं ।। महामारी---१ इस लोकेशनका कब्जा म्यूनिसिपैलिटीने 2 तो लिया; परंतु तुरंत ही हिंदुस्तानियोंको वहांसे हटाया नहीं था। हां, यह तय जरूर होगया था कि उन्हें दुसरी अनुकूल जगह दे दी जायगी। अबतक म्यूनिसिपैलिटी वह जगह निश्चित न कर पाई थी। इस कारण भारतीय लोग उसी 'गंदे' लोकेशनमें रहते थे । इससे दो बातोंमें फर्क हुअा । एक तो यह कि भारतवासी मालिक न रहकर सुधार विभागके किरायेदार बने, और दूसरे गंदगी पहलेसे अधिक बढ़ गई । इससे पहले तो भारतीय लोग मालिक समझे जाते थे, इससे वे अपनी राजीसे नहीं तो डरसे ही पर कुछ-न-कुछ तो सुफाई रखते थे; किंतु अब ‘सुधारका किसे डर था ? मकानों किरायेदारोंकी भी तादाद बढ़ी और उसके साथ ही गंदगी और अव्यवस्था-की भी बढ़ती हुई। यह हालत हो रही थी, भारतवासी अपने मनमें झल्ला रहे थे कि एकएक 'काला प्लेग’ फैल निकला । यह महामारी मारक थी । यह फेफड़ेका प्लेग था और गांठदाले प्लेगकी अपेक्षा भयंकर समझा जाता थई । कितु खुशकिस्मतीसे इस प्लेगको कार यह लोकेशन न था, बल्कि एक सोने की खान थी । जोहान्सबर्गके अासपास सोनेकी अनेक खाने हैं। उनमें अधिकांश हब्शी लोग काम करते हैं। उनकी सफाईकी जिम्मेदारी थी सिर्फ गोरे मालिकोंके सिर । इन खानपुर कितने ही हिंदुस्तानी' भी काम करते थे। उनमें से तेईस आदमी एकाएक लेगके