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कथा : भाग ४ हिएगा । मैं रोगियों की सेवा-शुश्रूषके लिए भी तैयार हूं । आप जानते ही हैं। कि मुझपर सिवा अपना पेट भरनेके और किसी तरहकी जिम्मेदारी नहीं है ।' मैंने मि० वेस्टको इसके लिए धन्यवाद दिया। मुझे नहीं याद पड़ता कि मैने एक मिनट भी विचार किया होगा ! मैंने कहा----
- नर्सका काम तो मैं आपसे नहीं लेना चाहता है यदि और लोग बीमार * हों तो हमारा काम एक-दो दिनों ही पूरी हो जायगा । पर एक काम आपके लायक जरूर है ।”
सो क्या है ? “आप डरबन जाकर 'इंडियन ओपीनियन' प्रेसका काम देख सकेंगे ? मदतजीत तो अभी यहां रुके हुए हैं। वहां किसी-न-किसीके जानेकी आवश्यकता तो है ही । यदि म हां चले जायं तो वहां के काम में त्रिलल निश्चित हो जाऊं।' वेस्टने जवाब दिया---“आप जानते हैं कि मेरे खुद एक छापाखाना हैं । बहुत करके तो मैं वहां जाने के लिए तैयार हो सकेंगा, पर निश्चित उत्तर आज शामको दे सकें तो हर्ज तो नहीं है ? आज शामको घूमने चल सके तो बातें कर लेंगे ।' उनके आश्वासनसे मुझे आनंद हुआ। उसी दिन शामको कुछ बातचीत हुई । यह तय पायो कि वेस्टको १० पौंड मासिक वेतन और छापाखानेके मुनाफेका कुछ अंश दिया जाय । महज़ वेतनके लिए वेस्ट वहां नहीं जा रहे थे। इसलिए यह सवाल उनके सामने नहीं था। अपनी उगाही मुझे सौंपकर दूसरे ही दिन सतकी मेलसे वेस्ट डरबन दाना हो गये। तबसे लेकर मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़नेतक वह मेरे दुःख-सुखके साथी रहे। वेस्टको जन्म विलायतके लाउथ नामक गांवमें एक किसान-कुटुम्बमें हुआ था । पाठशालामें उन्होंने बहुत मामूली दिशक्षा प्राप्त की थी । वह अपने ही परिश्रमसे अनुभवकी पाठशालामें पढ़कर और तालीम पाकर होशियार हुए थे। मेरी दृष्टिमें वह एक शुद्ध, संयमी, ईश्वरभीरु, साहसी और परोपकारी अंग्रेज थे। उनका व उनके कुटुंबका परिचय अभी हमें इन अध्यायोंमें और होगा ।