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अध्याय १६ : एक पुस्तकका बयकारी प्रभाव जहांतक मुझे याद है, लोकेशन जिस दिन खाली कराया गया, या तो उसी दिन या उसके दूसरे दिन उसमें आग लगा दी गई । एक भी चीजको वहां से बचा लानेका लोभ म्यूनिसिपैलिटीने नहीं किया । इन्हीं दिनों और इसी कारण म्यूनिसिपैलिटीने अपने मार्केटकी सारी लकड़ीकी इमारतें भी जला डालीं, जिससे उसे कोई १० हजार पौंडकी हानि सहनी पड़ी। मार्केटमें मरे चूहे पाये गये थे—इसलिए म्यूनिसिपैलिटीको इतने साहसका काम करना पड़ा। इसमें नुकसान तो बहुत बरदाश्त करना पड़ा, किंतु यह फल जरूर हुआ कि प्लेग आगे न वढ़ पाया और नगरवासी निःशंक हो गये । एक पुस्तकका चमत्कारी प्रभाव इस प्लेगके बदौलत गरीब भारतवासियोंपर मेरा प्रभाव बढ़ा और इसके साथ मेरी वकालत और मेरी जिम्मेदारी भी बहुत बढ़ गई। फिर यूरोपियन लोगो जो मेरा परिचय था वह भी इतना निकट होता गया कि उससे भी मेरी नैतिक जवाबदेही बढ़ने लगी । जिस तरह वेस्टसे मेरी मुलाकात निरामिष भोजनालयमें हुई, उसी तरह पोलकसे भी हो गई । एक दिन मेरे खानेकी मेजसे दूरकी मेजपर एक नवयुवक भोजन कर रहा था। उसने मुझसे मिलनेकी इच्छासे अपना नाम मुझतक पहुंचाया। मैंने उन्हें अपनी मेज़पर खानेके लिए बुलाया और वह आये ।। “मैं ‘क्रिटिक'का उप-संपादक हैं। प्लेग-संबंधी आपका पत्र पढ़नेके बाद आपसे मिलनेकी मुझे बड़ी उत्कंठा हुई। आज अापसे मिलनेका अवसर मिला है । मि० पौलककै शुद्ध भावने मुझे उनकी ओर खींचा । उस रातको हमारा एक-दूसरेसे परिचय हो गया और जीवन-संबंधी अपने विचारों में हम दोनों को बहुत साम्य दिखाई दिया। सादा जीवन उन्हें पसंद था। किसी बात पट जाने के वाद तुरंत उसपर अमल करनेकी उनकी शक्ति आश्चर्यजनक मालूम हुई। उन्होंने अपने जीवनमें कितने ही परिवर्तन तो एकदम कर डाले !