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अध्याय १८ एक तकक चमत्कारी प्रभाव

मका । उसने तो बस मुझे पकड़ ही लिया । जोहान्सबर्गसे नेटाल २४ घंटेका रास्ता है। ट्रेन शामको डरबन पहुंचती थी । यहुंचनेके बाद रात-भर नींद न आई। इस पुस्तके विचारोंके अनुसार जीवन बनानेकी धुन लग रही थी । । . इससे पहले मैंने रस्किनकी एक भी पुस्तक नहीं पड़ी थी । विद्यार्थीजीवनमें पाठ्य-पुस्तकोंके अलावा भेर दाचन नहीके बराबर समझना चाहिए और कर्मभुमिमें प्रवेश करनेके बाद तो मय ही वहन ए ना है। इस कारण आजतक भी मेरा पुस्तक-ज्ञान बहुत ही थे हैं। मैं मानता हूं कि इस अनायासके अथवा जबर्दस्ती संयमसे मुझे कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचा हैं । पर, हां, यह कह सकता हूं कि जो-कुछ थोड़ी पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं उन्हें ठीक तौरपर हजम करनेकी कोशिश अलबत्ता मैने की है । और मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तकने तत्काल महत्त्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला हो तो वह यही पुस्तक है। बादको मैंने इसका गजराती में अनुवाद किया था और वह सवाँदय के नामसे प्रकाशित । भी हुआ हैं । | मेरी यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अंतरतमें बसी हुई थी उसका स्पष्ट प्रतिबिंब मैंने रस्किनके इस ग्रंथ-रत्नम देखा और इस कारण उसने मुझपर अपना साम्राज्य जमा लिया एवं अपने विचारोंके अनुसार मुझसे झारण करवाया। हमारी अन्तस्थ सुप्त भावना जाग्रत करने का सामर्थ्य जिसमें होता है. वह कवि है। सब कविका प्रभाव सदपर एकसा नहीं होता; क्योंकि सद लोगोंमें सभी अच्छी भावनाएं एक मात्रामें नहीं होती ‘सर्वोदय के सिद्धांतको मैं इस प्रकार समक्षा१---सबके भलेमें अपना भला हैं । २---कील श्री नाई दोनों के कामकी कीमत एकही होनी चाहिए, क्योंकि आजीविकाका हक दोनोंको एक है। ...." ३-सादा..मजदुर और किसानको जीवन ही सच्चा जीवन है । . पहली बात तो मैं जानता था । दूभरीका मुझे आभास हुआ करना था। पर तिसरी तो मेरे विचार-क्षेत्र में ग्राई तक न थी। पहली बातमें पिछली दोनों बातें समाविष्ट हैं, यह बात सर्वोदय से मुझे सूर्य-प्रकाशकी तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। सुबह होते ही मैं उसके अनुसार अपने जीवनको नानेकी चितामें लगा। - - -- -- -- =