पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३२५

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अध्याय १६ : फिनिक्सकी स्थायल लोग यद्यपि संस्थावाची न बने, पर फिर भी उन्होने जहां प्रेस या नहीं जाना इस तरह कार्यक्रतोंके साथ बातचीत करने में से अधिक दिन गये हो, होस याद नहीं पड़ता। तुरंत ही मैंने अखदार विज्ञापन दिया कि इरबनके नजदीक दिन भी स्टेशदके पाल जमीन झाश्यक है। उनमें किन्।ि जमीन संदेा । वेस्ट इज देने ये और सात दिन अंदर २० एकड़ नच ले ला । में एक छोटा-ना ना न भ था । कुछ शाम र के पेड़ थे । स ही ८० एकड़ एक र दुका । उनु फलके इ ज्या थे , एक झोपड़ा भी था ! कुछ समय बाद उसे भी खरीद लिया। दोनों मिलकर १००० पर लगे । सेठ पारसी रुस्तमजी मेरे ऐसे तमाम साहुसके काम में मेरे साथी होते थे। उन्हें मेरी यह तजवीज पसंद आई। इसलिए उन्होंने अपने एक गोदाम टन वगैरा, जो उनके पास पड़े थे, नुक्त हमें दे दिये । कितने ही हिंदुस्तानी बढ़ई और राज, जो मेरे साथ लड़ाईमें थे, इसमें मदद देने लगे और कारखाना बनने लुगा । एक महीने में कान तैयार हो गया। वह ७५ फीट लंबा और ५० फीट चौड़ा था । वेस्ट वगैरह अपने शरीरको खतरेमें डालकर भी बइई आदिके साथ रहने लगे ।। | फिनिक्समें धाक्ष खूब थी और आबादी बिलकुल नहीं थी । इससे सांप अदिक उपद्रव रहता था और खतरा भी था। शुरू में तो हम तंदू तानकर ही रहने लगे । मुख्य भान तैयार होते ही हम लोग एक सप्ताह बहुतेरा सामान गाड़ियोंपर लादकार किलिन चले गये । डेरइन शौर फिलिमें तेरह मीलका फासला था । फिनिक्स स्टेशनले ढाई मील दूर था । . इक्ष स्थान-परिवर्तनके कारण सिर्फ एक ही सप्ताह 'इंडियन ओपीनियनको रक्यूरी प्रेसमें छपाना पड़ा था । मेरे साथ मेरे जो-जो रिश्तेदार वगैरा वहां गये और व्यापार आदि में लग गये थे उन्हें अपने मतमें मिलानेका और फिनिक्समें दाखिल करनेका प्रयत्न मैंने शुरू किया । वे सब तो धन जमा करनेकी उमंग दक्षिण अफ्रीका में थे ।