पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३२९

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अध्याय २१ : पोलक भी कूद पड़े। फेल । इस संस्थाके जीवनमें ऐसा भी एक युग गया था, जब जानबूझकर जिन चंद रक्खा गया था और दृढ़तापुर्वक हाश्के पहियेस ह स चलाया गया थः । मैं कह सकता हूं कि फिनिक्स जीवने यह ऊंचे-से-ॐवा नैतिक कल पोल भी कूद पड़े फिनिक्स जैसी संस्था स्थापित करनेके बाद मैं चुद थोड़े ही समय उसमें रह सका। इस बातपर मुझे हमेशा बड़ा दुःख रहा है। उसकी स्थापनाके समय मेरी यह कल्पना थी कि मैं भी वहीं दूंगा। वहीं रहकर जो-कुछ सेवा हो सके। बहू करूंगा और फिनिक्सकी सफलताको ही अपनी सेवा समझंग! ! परंतु इन विचारों के अनुसार निश्चित ब्यव्हार न सका। अपने अनुभवों मैंने यह बहुत बार देखा है कि हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है। परंतु इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया है कि जहां सत्यकी ही वाह अौर उपासना है वहां परिणाम चाहे हमारी धारणाके अनुसार न निकले, कुछ और ही निकले, परंतु वह अनिष्ट-- बुरा--नहीं होता और कभी-कभी तो शासे भी अधिक अच्छा हो जाता है। फिनिसमें जो अकल्पित परिणाम पैदा हुए और फिनिक्सको जो अकल्पित रूप प्राप्त हुआ, वह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि अनिष्ट नहीं । हां, यह बात अलबत्ता निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि उन्हें अधिक अच्छा कह सकते हैं या नहीं। | हमारी धारणा यह थी कि हम लोग खुद मिहनत करके अपनी रोजी अदायेंगे, इसलिए छापेखानेके आसपात हरएक निवासीको तीन-तीन एकड़ जमीनका टुकड़ा दिया गया। इसमें एक टुकड़ा मेरे लिए भी नापा गया । हम सब लय की इच्छा के खिलाफ उनपर टीनके घर बनाये गये । इच्छा तो हमारी बहू थी कि हम मिट्टी और फुसके, किसानों के लायक, अथवा ईंटके मकान बनावें; पर वह न हो सका । उसमें अधिक रुपया लगता था और अधिक समय भी जाता था । फिर सब लोग इस बातुके लिए आतुर थे कि कब अपने घर बसा लें और क्रोममें लग जाय ।