पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३३४

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३१४ तुरंत मेरी दलील पट गई । भावी श्रीमती पोल विलायतमें थीं, उनके भाई चिट्ठी-पत्री हुई। वह सहमत हुईं और थोड़े ही महीनों वह विवाहके लिए जोहान्सबर्ग आ गई । विवाहमें खर्च कुछ भी नहीं करना पड़ा । विवाहके लिए खात कपड़ेक्षक नहीं बनाये गये और धर्म-विधिकी भी कोई आबश्यकता नहीं सनी । श्रीमती पोलक जन्मतः ईसाई और पोलक यहूदी थे। दोनों नीति-धर्मके मानने वाले थे। । परंतु इस विवाहके समय एक मनोरंजक घटना होनई थी। ट्रांसवालमें जो कर्मचारी गोरोंके विवाहकी रजिस्ट्री करता वह काले विवाहकी नहीं करता था । इस विवाहमें दोनोंका पुरोहित या साक्षी मैं ही था । हम चाहते तो किसी गोरे-मित्रकी भी तजवीज कर सकते थे; परंतु पोलक इस बातको बरदाश्त नहीं कर सकते थे, इसलिए हम तीनों उस कर्मचारीके पास गये । जिस विवाहका मध्यस्थ एक कला आदमी हो उसमें वर-वधू दोनों गोरे ही होंगे, इस बातका विश्वास सहसा उस कर्मचारीको कैसे हो सकता था ? उसने कहा कि मैं जांच . करने के बाद विवाह रजिस्टर करूंगा। दूसरे दिन बड़े दिनका त्यौहार था । विवाहकी सारी तैयारी किये हुए वर-वधू विवाहको रजिस्ट्री की तारीखका इस तरह बदला जाना सबको बड़ा नागवार गुजरा। बड़े मजिस्ट्रेट नेरा परिचय था । वह इस विभागका अफसर था। मैं इस दंपतीको लेकर उनके पास गया । किस्सा सुनकर वह हंसे और चिट्ठी लिख दी। तब जाकर वह विवाह रजिस्टर हुन्न । | आजतक तो थोड़े-बहुत परिचित गोरे पुरुष ही हम लोगोंके साथ रहे। थे ; पर अव एक अपरिचित अंग्रेज महिला हमारे परिवार में दाखिल हुई। मुझे तो बिलकुल याद नहीं पड़ता कि खुद मेरा कभी उनके साथ कोई झगड़ा हुआ हो; परंतु जहां अनेक जातिके और प्रकृतिके हिंदुस्तानी आया-जाया करते थे और जहां मेरी पत्नीको अभी ऐसे जीवनका अनुभव थोड़ा था, जहां उन दोनों को कभी-कभी उद्वेगके अवसर मिले हों तो आश्चर्य नहीं; परंतु मैं बह सकता हूं कि एक ही जाति और कुटुंबके लोगोंमें कटु अनुभव जितने होते हैं, उनसे तो अधिक इस विजातीय कुटुंबमें नहीं हुए; बल्कि ऐसे जिन प्रसंग का स्मरण मुझे ' हैं वे बहुत मामूली' कहे जा सकते हैं। बात यह है कि सजातीय-विजातीय यह तो