पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३४०

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डरबन पहुंचकर मैंने आदमी मांगे । बहुत लोगोंको जरूरत न थी । हम चौबीस आदमी तैयार हुए । उनमें मेरे अलावा चार गुजराती थे। शेष मदरास प्रांत भिरभिट-युक्त हिंदुस्तानी थे और एक पठान था ।। मुझे औषधि-विभागके मुख्य अधिकारीने इन टुकड़ीनें ‘सारजंट मेजरका स्थायी पद दिया और मेरे पसंद किये दूसरे दो सज्जनों को सारजंट'को और एक को ‘कारपोरल की पदवियां दीं । वर्दी भी सरकारकी तरफसे मिली। इसका कारण यह था कि एक तो काम करनेवालोंके आत्म-सम्मानकी रक्षा हो, दूसरे काम सुविधा-पूर्वक हो, और तीसरे ऐसी पदवी देने का वहां रिवाज भी था । इस टुकड़न छः सप्ताहतक सतत सेवा की । 'बलने के स्थलपर जाकर मैंने देखा कि वहां ‘बलवा' जैसा कुछ नहीं था । कोई सामना करता हुशा दिखाई नहीं पड़ा । उसे ‘बलवा माननैका कारण यह था कि एक जुलू सरदारने जुलू लोगोंपर बैठाये नये करको न देने की सलाह उन्हें दी थी और एक सारजंटको, जो वहां कर वसूल करनेके लिए गया था, मार डाला था। जो भी हो, मेरा हृदय तो इन जुलूझोंकी तरफ था और अपनी छावनी पहुंचने पर जब हमें खासकरके जुलू घायलोंकी ही शुश्रूषाका काम दिया गया तब तो मुझे बड़ी खुशी हुई। उस डाक्टर अधिकारीने हमारी इस सेवाका स्वागत करते हुए कहा--- "गोरे लोः इन बायलों की सेवा करनेके लिए तैयार नहीं होते । मैं अकेला क्या करता ? इनके धाव खराव हो रहे हैं। अप मा गये, यह अच्छा हुआ । इसे मैं इन निरपराध लोगोंपर ईश्वरकी कृपा ही समझता हूं।'यह कहकर मुझे पट्टियां और जंतु-नाशक पानी दिया और उन घायलोंके पास ले गये। घायल हमें देखकर बड़े आनंदित हुए । गोरे सिपाही जंगलों से झांक-झांककर हुसको घाव धोने से रोकनेकी चेष्टा करते और हमारे न सुननेपर थे जुलू लोगोंको जो बुरी बुरी गालियां देते उन्हें सुन्दर हुने कानोंमें उंगलियां देनी पड़तीं. ।। " धीरे-धीरे इन गोरे सिपाहियोंके साथ भी मेरा परिचय हुआ और फिर उन्होंने मुझे रोवाना बंद कर दिया। इस सेना कर्नल स्पाक्स और कर्नल बायली थे, जिन्होंने १८९६में मेरा घोर दिरोध किया था। वे मुझे इस काममें सम्मिलित देखकर चकित हो गये। मुझे खास तौरपर बुलाकर उन्होंने धन्यवाद दिया और जनरल मैकेजीके पास ले जाकर उनसे मेरी मुलाकात करवाई।