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अध्याय २८ : पत्नीको दृढ़ता भोजतर्भ----नहीं दिया जा सकता था । तो उन्होंने मुझे जोहान्सबर्ग टेलीफोन किया-- “आपकी पत्नीको में मांसका शोरवा और 'बीफ टी' देने की जरूरत समझता हूं। मुझे इजाजत दीजिए ।' | मैंने जवाब दिया, “मैं तो इजाजत नहीं दे नुकता । परंतु कस्तूरबाई आजाद है। उसकी हालत पूछने लायक हो तो पूछ देखिए और वह लेना चाहे तो ज़रूर दीजिए । “बीमारसे में ऐसी बातें नहीं पूछना चाहता । ग्राप खुद यहां आ जाइए । जो चीजें में बताता हूँ उनके खानेको इजाजत यदि अप न दें तो मैं आपकी पत्नी की जिंदगीके लिए जिम्मेदार नहीं हूं। यह सुनकर मैं उन दिन डरबन रवाना हुआ । डाक्टरले मिलने उन्होंने कहा--- " मैंने तो शोरबा पिलाकर आपको टेलीफोन किया था।" मैंने कहा--- “डाक्टर, यह तो विश्वासघात है । इलाज करते वक्त मैं दगा-वगा कुछ नहीं समझता । हम' डाक्टर लो; ऐसे समय बीमारको, उसके रिश्तेदारोको, धोखा देना पुण्य समझते हैं। हमारा धर्म तो है जिस तरह हो सके रोगीको बचाना । " डाक्टरने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया ।। यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । पर मैने शांति धारण की । डाक्टर मित्र थे, सज्जन थे । उनका और उनकी पत्नीका मुझपर बड़ा अहसान था । पर में उनके इस व्यवहारको बर्दाश्त करनेके लिए तैयार न था । । * डाक्टर, अब साफ-साफ बातें कर लीजिए । बताइए, अप क्या करना चाहते हैं ? मेरी पत्नीको बिना उसकी इच्छाके मांस नहीं देने दूंगा, उसके न लेनेसे यदि वह मरती हो तो इसे सहन करनेके लिए मैं तैयार हूं।" डाक्टर बोले-..-"आपकः यह सिद्धांत मेरे घर नहीं चल सकता है | तो आपसे कहता हूं कि आपकी पत्न' जबतक मेरे यहां है तबतक मैं भांस अथवा जो कुछ देना मुनासिब समझंग जरूर दूंगा। अगर आपको यह मंजूर नहीं हैं तो आप अपनी पत्नीको यहांसे ले जाइए। अपने ही घर में इस तरह उन्हें नहीं मरने दूंगा।"