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आत्म-कथा

हम फलाहारी थे, इसलिए हमको ताजे और सूखे फल देने की आज्ञा भी जहाजके खजांचीको दे दी गई थी। मामूली तौरपर तीसरे दर्जे के यात्रियोंको फल कम ही मिलते हैं और मेवा तो कतई नहीं मिलता। पर इस सुविधाकी ददौलत हम लोग समुद्रपर बहुत शांतिनसे १८ दिन बिता सके । इस यात्राके कितने ही संस्मरण जानने योग्य हैं। सि० केलनबेको दूरबीनोंका बड़ा शौक था। दो-एक कीती दूरबीनें उन्होंने अपने साथ रखी थीं । इसके विषयमेंं रोज हमारे अपसमेंं बहस होती । मैं उन्हें यह अंचाने की कोशिश करता कि यह हमारे आदर्श के और जिस दगीको हक पहुंचना चाहते हैं उसके अनुकूल नहीं है । एक रोज तो हम दोनों इस विषयपर गरमागरम बहस हो गई। हुम दोनों अपनी कैबिनकी खिड़कीके पास खड़े थे । मैंने कहा--- “श्रापके और मेरे बीच ऐसे झगड़े होने से तो क्या यह बेहतर नहीं हैं कि इस दूरबीनको समुद्र के हैं और इसकी चर्चा ही न करें ? " । | मि० केलनबेकने तुरंत उत्तर दिया---- जरूर इस झगड़े की जड़को फेंक ही दीजिए ।” | मैंने कहा- “देखो, में फेंक देता हूँ !" उन्होंने बे-रोक उत्तर दिया--- "मैं सचमुच कहता हूं, फेंक दीजिए।" और मैंने दूरबीन केक दी। उसका दाभ कोई सात पौंड था । परंतु उसकी कीमत उसके दामकी अपेक्षा मि० केलनबेकके उसके प्रति मोहमें थी । फिर भी मि० केलनबेकने अपने मनको कभी इस बातका दुःख न होने दिया । उनके मेरे बीच तो ऐसी कितनी ही बात हुआ करती थीं--यह तो उसका एक नमूना पाठकोंको दिखाया है। . हम दोनों सत्यको सामने रखकर ही चलनेका प्रयत्न करते थे। इस लिए मेरे उनके इस संबंधके फलस्वरूप हम रोज कुछ-न-कुछ नई बात सीखते । सत्यका अनुसरण करते हुए हमारे क्रोध, स्वार्थ, द्वेष इत्यादि सहज ही शमन हो जाते थे और यदि न होते तो सत्यकी प्राप्ति न होती थी। भले ही राग-द्वेषादिसे भरा मनुष्य सरल हो सकता है, वह वाजिक सत्य भले ही पाल ले, पर उसे शुद्ध सत्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती । शुद्ध सत्यकी शोध करने के मानी है. रागद्वेषादि द्वद्वनै सर्वथा भुक्ति प्राप्त कर लेना ।