पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३७३

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आत्म-कथा : भाग ४ सामने उनका एक ढेर रख दिया और कहा कि जितने सिला सको, उतने सिलाकर मुझे दे देना। मैंने उनकी इच्छाको स्वागत करते हुए घायलोंकी शुश्रूषाको उस ताल के दिनोंमें जितने कपड़े तैयार हो सके उतने करके दे दिय । धर्मकी समस्या बुद्धमें काम करने के लिए हम कुछ लोगोंने सभा करके जो अपने नाम सरकारको भेजे, इसकी खबर दक्षिण अफीका पहुंचते ही वहां से दो सार मेरे नाम अाये । इनमें से एक पोलकका था। उन्होंने पूछा था--- "आपका यह कार्य अहिंसा-सिद्धांतके खिलाफ तो नहीं है ? | मैं ऐसे तार की आशंका कर ही रहा था; क्योंकि 'हिंद स्वराज्य में मैंने इस विषयकी चर्चा की थी और दक्षिण अफ्रीकानें तो मित्रोंके साथ उसकी चर्चा निरंतर हुआ ही करती थी । हम सब इस बातको मानते थे कि युद्ध अनीति-मय हैं । ऐसी हालतमें और जबकि मैं अपने पर हमला करनेवालेपर भी मुकदमा चलानेके लिए तैयार नहीं हुआ था तो फिर जहां दो राज्यों में युद्ध चल रहा हो और जिसके भले या बुरे होने का मुझे पता न हो उसमें में सहायता कैसे कर सकता हूं, यह प्रश्न था । हालांकि मित्र लोग यह जानते थे कि मैंने वोअर-संग्राममें योग दिया था तो भी उन्होंने यह मान लिया था कि उसके बाद मेरे वित्रारोंमें परिवर्तन हो गया होगा । और बात दरअसल यह थी कि जिस विचार-सरणिके अनुसार मैं बोअरयुद्धमें सम्मिलित हुआ था उसीका अनुसरण इस समय भी किया गया था । मैं ठीक-ठीक देख रहा था कि युद्धमें शरीक होना अहिंसाके सिद्धांतके अनुकूल नहीं है, परंतु बात यह है कि कर्तव्यका भान मनुष्यको हमेशा दिनकी तरह स्पष्ट नहीं दिखाई देता । सत्यके । पुजारीको बहुत बार इस तरह गोते खाने पड़ते हैं । अहिंसा एक व्यापक वस्तु है। हम लोग ऐसे पामर प्राणी हैं, जो हिंसाकी होलीमें फंसे हुए हैं। जीवो जीवस्य जीवनम्” यह बात असत्य नहीं है। मनुष्य एक क्षण भी बाह्य हिंसा किये बिना नहीं जी सकता । खाते-पीते, बैठते-उठते, तमाम