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आत्म-कथा : भाग १


गया तो बड़ा अच्छा आदमी साबित होगा। मैं चाहता हूं कि आप मेरी तरफसे बिलकुल निःशंक रहें।" मैं नहीं समझता कि मेरे इन वचनोंसे उन्हें संतोष हुआ हो; पर इतना जरूर हुआ कि उन्होंने मुझपर विश्वास रक्खा और मुझे अपने रास्ते जाने दिया।

पीछे जाकर मैंने देखा कि मेरा अनुमान ठीक न था। सुधार करनेके लिए भी मनुष्यको गहरे पानीमें न पैठना चाहिए। जिनका सुधार हमें करना हो उनके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रतामें अद्वैत-भाव होता है। ऐसी मित्रता संसारमें बहुत कम देखी जाती हैं। समान गुण और शीलवालोंमें ही मित्रता शोभती और निभती हैं। मित्र एक-दूसरेपर अपना असर छोड़े बिना नहीं रह सकते। इस कारण, मित्रतामें सुधारके लिए बहुत कम गुंजाइश होती है। मेरा मत यह है कि निजी या अभिन्न मित्रता अनिष्ट है; क्योंकि मनुष्य दोषको झट ग्रहण कर लेता है। किंतु गुण ग्रहण करनेके लिए प्रयासकी जरूरत है। जो आत्माकी-ईश्वरकी-मित्रता चाहता है उसे एकाकी रहना उचित है, या फिर सारे जगतके साथ मित्रता करनी उचित है। ये विचार सही हों या गलत, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा निजी मित्रता जोड़ने और बढ़ानेका यह प्रयत्न विफल साबित हुआ।

जिन दिनों इन महाशयसे मेरा संपर्क हुआ, राजकोटमें 'सुधारक-पंथ' का जोरशोर था। इन मित्रने बताया कि बहुतेरे हिंदू-शिक्षक छिपे-छिपे मांसाहार और मद्यपान करते हैं। राजकोटके दूसरे प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम भी लिये। हाईस्कूलके कितने ही विद्यार्थियोंके नाम भी मेरे पास आये। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही दु:ख भी। जब मैंने इसका कारण पूछा तो यह बताया गया-"हम मांस नहीं खाते, इसीलिए कमजोर हो गये हैं। अंग्रेज़ जो हमपर हुकूमत कर रहे हैं इसका कारण है उनका मांसाहार। तुम जानते ही हो कि मैं कितना हट्टा-कट्टा और मजबूत हूं और कितना दौड़ सकता हूं। इसका कारण भी-मेरा मांसाहार ही है। मांसाहारीको फोड़े-फुंसी नहीं होते, हों भी तो जल्दी अच्छे हो जाते हैं। देखो, हमारे शिक्षक लोग मांस खाते हैं, इतने भले-भले आदमी खाते हैं, सो क्या बिना सोचे-समझे ही? तुमको भी खाना चाहिए। खाकर तो देखो कि तुम्हारे बदनमें कितनी ताकत आ जाती है ।"