पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३८८

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अध्याय ४४ : वकालतको कुछ स्वालियर ३७१ । उठाना पड़े और अंतको कौन कह सकता है कि नतीजा क्या हो ? " इस बातचीतके समय हमारे मवक्किल भी मौजूद थे । मैंने कहा, “मैं तो समझता हूं कि मवक्किलो और हम लोगोंको ऐसी जोखिम जरूर उठानी चाहिए। फिर इस बातका भी क्या भरोसा कि अदालतको भूल मालूम हो जाय और हम उसे मंजूर न करें तो भी वह भूल-भरा फैसला कायम ही रहेगा और यदि भूल सुधारते हुए मदक्किलको नुकसान सहना पड़े तो क्या पर यह तो तभी न होगा जब हम भूल कबूल करें ? " बड़े वकील बोले ।। | "हम यदि मंजूर न करें तो भी अदालत उसे ने पकड़ लेगी अथवा विपक्षी भी उसको न देख लेंगे इस बातका क्या निश्चय ? " मैंने उत्तर दिया। " तो इस मुकदमेमें आप बहस करने जायंगे ? भूल मंजूर करनेकी शर्तपर मैं बहस करने के लिए तैयार नहीं ।' बड़े वकीलने दृढताके साथ कहा । मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “ यदि आप न जायंगे और मवक्किल चाहेंगे तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। यदि भूल कबूल न की जाय तो इस मुकदमे में मेरे लिए काम करना असंभव है ।” इतना कहकर मैंने मवक्किलके मुंहकी ओर देखा । वह जरा चिंतामें पड़े ; क्योंकि इस मुकदमे में शुरू से ही था और उनका मुझपर पूरा-पूरा विश्वास था । वह मेरी प्रकृति से भी पूरे-पूरे वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने कहा- “तो अच्छी बात है, आप ही बहस करने जाइए। शौकसे भूल मान लीजिए । हार ही नसीबमें लिखी होगी तो हार जायंगे । आखिर सांचको अांच क्या ?" यह देखकर मुझे बड़ा आनंद हुआ। मैंने दूसरे उत्तरकी' अशा ही नहीं रक्खी थी। बड़े वकीलने मुझे खूब चेताया और मेरी ‘हठधर्मी के लिए मुझपर तरस खाया और साथ ही धन्यवाद भी दिया । | अब अदालतमें क्या हुआ सो अगले अध्यायमें ।