पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९२

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अध्याय ४७ : अवकल जलसे कैसे बचा । नहीं आतीं वहां मैं मवक्किंलको दुसरे वकीलोंके पास जानेको कहता अथवा यदि मुझे ही वकील बनाते तो अधिक अनुभवी वकीलकी सलाह लेकर काम करने की प्रेरणा करता । अपने इस शुद्ध भावकी बदौलत मैं भवक्कि नका असूट प्रेम और विश्वास संपादन कर सका था। बड़े वकीलोंकी फीस भी वे खुशी-खुशी देते थे । इस विश्वास और प्रेमका पूरा-पूरा लाभ मुझे सार्वजनिक कामों में मिला है। पिछले अध्यायोंमें मैं यह बता चुके हैं कि दक्षिण अफ्रकामें वकालत करने में मेरा हेतु केवल लोक-सेवा था । इससे सेवा-कार्य के लिए भी मुझे लोगोंक विश्वास प्राप्त कर लेने की आवश्यकता थी । परंतु वहांके उदार-हृदय भारतीय भाइयोंने फीस लेकर की हुई वकालतको भी सेवाका ही गौरव प्रदान किया और जब उन्हें उनके हकोंके लिए जेल जाने और वहांके कष्टोंके सहन करने की सलाह मैंने दी तब उसको अंगीकार उनमें से बहुतने ज्ञानपूर्वक करनेकी' अक्षा मेरे प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेमके कारण ही अधिक किया था । यह लिखते हुए वकालतके समयकी कितनी ही मीठी बातें कलम में भर रही है। सैकड़ों मवक्किल मित्र बन गये, सार्वजनिक सेवामें मेरे सच्चे साथी बने और उन्होंने मेरे कठिन जीवनको रस-मय बना डाला था । मवकिले जेल से कैसे बचा है। पारस रुस्तमजीके नामसे इन अध्यायों के पाठक भलीभांति परिचित हैं। पारस रुस्तमजी मेरे भवक्किल और सार्वजनिक कार्य में साथी; एक ही साथ बने; बल्कि यह कहना चाहिए कि पहले साक्षी बने और बादको भवक्किल । उनका विश्वास. तो मैंने इस दतक प्राप्त कर लिया था कि वह अपने घरू और खानगी बात में भी मेरी सलाह मांगते और उसका पालन करते हैं उन्हें. यदि कोई बीमारी भी हो तो बह मेरी सलाहकी जरूरत समझते और उनकी और मेरी रहन-सहन में बहुत-कुछ भेद रहनेपर भी बह खुद मेरे उपचार करते । .. मेरे इस साथीपर एक बार बड़ी भारी मिति आ गई थी। हालांकि