पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९४

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अध्याय ४७ : वकिल जैलसे कैसे बचा ? . अधिक पूछ-ताछ करनेसे मालूम हुआ कि यह चोरी बहुत दिनोंसे होती आ रही थी । जो चोरी पकड़ी गई थी वह तो थोड़ी ही थी । पुराने वकील पास हम लोग गये। उन्होंने सारी बात सुनकर कहा कि “यह मामला जूरी के पास जायगी । यहांके जूरी हिंदुस्तानीको क्यों छोड़ने लगे ? पर मैं निराश होना नहीं चाहता ।' इन वकीलके साथ मेरा गाढ़ा परिचय न था । इसलिए पारसी रुस्तमजीने ही जवाब दिया--- " इसके लिए आपको धन्यवाद है। परंतु इस मुकदमे में मुझे मि० गांधीकी सलाहके अनुसार काम करना है। वह मेरी बातोंको अधिक जानते हैं। आप जो कुछ सलाह देना मुनासिब समझे हमें देते रहिएगा।" | इस तरह थोड़े में समेटकर हम रुस्तमजी सेठकी दुकानपर गये । मैंने उन्हें समझाया--- “मुझे यह मामला अदालतमें जाने लायक नहीं दिखाई देता । मुकदमा चलाना न चलाना चुंगी-अफसरके हाथ में है । उसे भी सरकारके प्रधान वकीलकी सलाहसे काम करना होगा । मैं इन दोनोंसे मिलने के लिए तैयार हूं, परंतु मुझे तो उनके सामने यह चोरीकी बात कबूल करना पड़ेगी, जोकि वे अभीतक नहीं जानते हैं। मैं तो यह सोचता हूं कि जो जुरमाना वे तजवीज कर दें उसे मंजूर कर लेना चाहिए। बहुत मुमकिन है कि वे मान जायंगे । परंतु यदि न मानें तो फिर आपको जेल जानेके लिए तैयार रहना होगा। मेरी राय तो यह है कि लज्जा जेल जाने में नहीं, बल्कि चोरी करनेमें है। अब लज्जाका काम तो हो चुका; यदि जेल जाना पड़े तो उसे प्रायश्चित्त ही समझना चाहिए । सच्चा प्रायश्चित्त तो यह है कि अब गेसे ऐसी चोरी न करनेकी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए। मैं यह नहीं कह सकता कि रुस्तमजी सेठ इन सब बातोंको ठीकटीक समझ गये हों । वह बहादुर आदमी थे। पर इस समय हिम्मत हार गये थे। उनकी इज्जत बिगड़ जाने का मौका आ गया था और उन्हें यह भी डर था कि खुद मिहनत करके जो यह इमारत खड़ी की थी वह कहीं सारी-की-सारी न देह जाय । | उन्होंने कहा-- “मैं तो आपसे कह चुका हूं कि मेरी गर्दन पके हाथ में है । जैसा आप मुनासिब समझे वैसा करें । मैंने इस मामलेमें अपनी सारी कला और सौजुन्य खर्च कर डाला।