पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९७

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३६६ आत्म-कथा : भाग ५ जिस समय मैं बंबई बंदरपर उतरा तो वहां मुझे खबर हुई कि उन दिनों यह परिवार शांति-निकेतनमें था । इसलिए गोखलेसे मिलकर मैं वहां जाने के लिए अधीर हो रहा था । बंबईमें स्वागत-सत्कारके समय ही मुझे एक छोटा-सा सत्याग्रह करना पड़ा था। मि० पेटिटके यहां मेरे निमित्त स्वागत-सभा की गई थी। वहां तो स्वागतका उत्तर गुजरातीमें देनेकी मेरी हिम्मत न हुई। इस महल में और अखिों को चौंधिया देनेवाले वहांके ठाट-बाटमें, मैं जो गिरमिटियोंके सहवास में रहा था, देहातके एक गंवारकी तरह मालूम होता था। आज जिस तरहकी बेष-भूषा मेरी है, उससे तो उस समयका अंगरखा, साफा इत्यादि अधिक सभ्य पहनावा कहा जा सकता है। फिर भी उस अलंकृत समाज में मैं एक बिलकुल अलग आदमी मालूम होता था; परंतु वहां तो मैंने ज्यों-त्यों करके अपना काम चलाया और फिरोजशाह मेहताकी छाया में जैसे-तैसे प्रश्रय लिया । | ऐसे अवसरपर गुजराती लोग भला मुझे क्यों छोड़ने लगे ? स्वर्गीय उत्तमलाल त्रिवेदीने भी एक सभा निमंत्रित की थी। इस सभाके संबंधमें कुछ बातें मैंने पहले ही जान ली थीं। गुजराती होनेके कारण मि० जिन्ना भी उसमें आये थे। वह सभापति थे या प्रधान वक्ता थे, यह बात मैं भूल गया हूं। उन्होंने अपना छोटा और मीठा भाषण अंग्रेजीमें किया और मुझे ऐसा याद पड़ता है कि और लोगोंके भाषण भी अंग्रेजीमें ही हुए थे; परंतु जब मेरे बोलनेका अवसर आया तंब मैंने अपना जवाब गुजरातीमें ही दिया और गुजराती तथा हिंदुस्तानी भाषा-विषयक अपना पक्षपात मैंने वहां थोड़े शब्दों में प्रकट किया । इस प्रकार गुजरातियोंकी सभाले अंग्रेजी भाषाके प्रयोगके प्रति मैंने अपना नम्र विरोध प्रदर्शित किया । ऐसा करते हुए मेरे मन में संकोच तो बड़ा होता था। बहुत समयतक देससे बाहर रहने के बाद जो शख्स स्वदेशको लौटता है वह, देसकी बातोंसे अपरिचित आदमी, यदि प्रचलित प्रथाके विपरीत आचरण करे, तो यह अविवेक तो न होगा, यह शंका मनमें बराबर अाया करती थी; परंतु गजराती में जो मैंने इतर देने का साहस किया उसका किसीने उल्टा अर्थ नहीं लगाया और मेरे विरोधको सबने सहन कर लिया, यह देखकर मुझे आनंद हुआ और इस परसे मैंने यह नतीजा निकाल कि मेरे दूसरे, नये-से प्रतीत होनेवाले, विचार भी यदि मैं लोगोंके सामने रखें