पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१०

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अध्याय ७ : कुंभ बैठक स्थगित रक्खा । घर जाते हुए मैं बड़े विचारके भंवर में पड़ गया । बहुमतके बलपर मेरा समितिमें दाखिल होना क्या उचित है ? क्या गोखलेके प्रति यह मेरी वफादारी हो ? यदि बहुमत मेरे खिलाफ हो जाय तो क्या इससे समितिकी स्थितिको विषम बनानैका निमित्त न बनूंगा ? मुझे यह साफ दिखाई पड़ा कि जबतक समिति सदस्यों मुझे सदस्य बनाने के विषय मतभेद हो तबतक मुझे खुद ही उसमें दाखिल हो जानेका अन्नह छोड़ देना चाहिए और इस तरह विरोधी पक्षको नाजुक स्थितिमें पड़ने से बचा लेना चाहिए। इसी में मुझे समिति और गोखले प्रति अपनी वफादारी दिखाई दी । अंतरात्मामें यह निर्णय होते ही तुरंत मैंने श्रीशास्त्रीको पत्र लिखा कि आप मुझे सदस्य बनानेके बिषयमें सभा न बलावें । विरोधी पक्षको मेरा यह निश्चय बहुत पसंद आया । वे धर्म-संकटसे बच गये । उनकी मेरे साथ स्नेह-गांठ अधिक मजबूत हो गई और इस तरह समितिमें दाखिल होनेकी मेरी दरख्वास्तको वापस लेकर मैं समितिका सच्चा सदस्य बना। - अब अनुभवसे मैं देखता हूं कि मेरा बाकायदा समितिको सदस्य न होना ठीक ही हुआ और कुछ सदस्योंने मेरे सदस्य बननेका जो विरोध किया था, वह वास्तविक था। अनुभवने दिखला दिया है कि उनके और मेरे सिद्धांतोंमें भेद था; परंतु मत-भेद जान लेने के बाद भी हम लोगों की आत्मामें कभी अंतर न पड़ा, न कभी मन-मुटाव ही हुआ । मतभेद रहते हुए भी हम' बंधु और मित्र बने हुए हैं । समितिका स्थान मेरे लिए यात्रा-स्थल हो गया है। लौकिक दृष्टिसे भले ही मैं उसका सदस्य न बना हूं, पर आध्यात्मिक दृष्टिसे तो हूँ ही । लौकिक संबंधकी अपेक्षा आध्यात्मिक संबंध अधिक कीमती हैं। आध्यात्मिक संबंधसे हीन लौकिक संबंध प्राण-हीन शरीरके समान है । मुझे डाक्टर प्राणजीवनदास मेहतासे मिलने रंगून जाना था। रास्तेमें वांलकत्तामें श्री भूपेंद्रनाथ बसुके निमंत्रणसे मैं उनके यहां ठहो । यहां तो मैंने