पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४११

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अ -कथ : ग ५ बंगालके शिष्टाचारको हद देखी। इन दिनों में सिर्फ फलाहार ही करता था । मेरे साथ मेरा लड़का रामदास भी था। भूपेंद्रबाबूके यहां जितने फल और मेवे कुलकते में मिलते थे सब लाकर जुटाये गये थे । स्त्रियोंने रातों-रात जगकर बादाम, पिस्ता वगैराको भिगोकर उनके छिलके निकले थे। तरह-रहके फल भी जितना हो सकता था सुरुचि और चतुराईके साथ तैयार किये गये थे । मेरे साथियों के लिए तरह-तरहके पकवान बनवाये गये थे । इस प्रेम और विवेकके आंतरिक भावको तो मैं समझा, परंतु यह बात मुझे असह्य मालूम हुई कि एक-दो मेहमानोंके लिए सारा छर दिन-भर काम में लगा रहे; किंतु इस संकटसे बचनेका मेरे पास कोई उपाय न था । रंगून जाते हुए जहाज में मैंने डेकर यात्रा को थी । श्रीसुके यहां यदि प्रेमकी मुसीबत थी तो जहाजमें प्रेमके अभावकी'। यहां डेकके यात्रियों कष्टोंका बहुत बुरा अनुभव हुआ । नहानेकी जगहपर इतनी गंदगी थी कि खड़ा नहीं रहा जाता था । पाखाना तो नरक ही समझिए । मलमूत्रको छूकर या लांघकर ही पाखाने में जा सकते थे। मेरे लिए वे कठिनाइयां बहुत भारी थीं। मैंने कप्तानसे इसकी शिकायत की; पर कौन सुनने लगा ? इधर यात्रियोंने खूब गंदगी कर-करके डेकको बिगाड़ रखा था। जहां बैठे होते वहीं थूक देते, वहीं तंबाकूकी पिचकारियां चला देते, वहीं खा-पीकर छिलके और कचरा डाल देते । बातचीतकी आवाज और शोर-गुलका तो कहना है क्या ? हुर शख्स ज्यादा-से-ज्यादा जगह रोकने की कोशिश करता था, कोई किसीकी सुविधा का जरा भी खयाल न करता था । खुद जितनी जगहपर कब्जा करते उससे . ज्यादा जगह सामानले रोक लेते। ये दो दिन मैने राम-राम करके बिताये । | रंगून पहुंचने पर मैंने एजेंटको इस दुर्दशाकी कथा लिख भेजी। लौटते. बक्त भी मैं आया तो डेक पर ही, परंतु उस चिट्ठीके तथा डाक्टर मेहताके इंतजामके फलस्वरूप उतने कष्ट न उठाने पड़े । मेरे फलाहारकी झंझट यहां भी आवश्यकतासे अधिक की जाती थी । डाक्टर मेहताले तो मेरा ऐसा संबंध है कि उनके घरको मैं अपना घर समझ सकता हूं। इससे मैंने खानेकी चीजोंकी संख्या तो कम कर दी थी, परंतु अपने लिए उसकी कोई मर्यादा नहीं बनाई थी। इससे तरह-तरहुका मेवा वहां आता और मैं उसकाd