पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१३

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अमि-कथा : भानै ५ स्वीकार किया। इस सेवाको मांगकर लेनेवाला तो था मैं, परंतु उसे पूरा करनेका वोझा उठाने वाले थे मगनलाल गांधी । मेरा काम वहां क्या था ? डेरेमें बैठकर जो अनेक यात्री आते उन्हें ‘दर्शन' देना और उनके साथ धर्म-चर्चा तथा दूसरी बातें करना । दर्शन देते-देते में घबरा उठा, उससे मुझे एक भिन्नटे की भी फुरसत नहीं मिलती थी। मैं नहाने जाता तो वहां भी मुझे दर्शनाभिलाषी' अकेला नहीं छोड़ते और फलाहारके समय तो एकांत मिल ही कैसे सकता था ? तंबूमें कहीं भी एक पलके लिए अकेला न बैठ सकता। दक्षिण अफ्रीकामें जो-कुछ सेवा मुझसे हो सकी उसका इतना गहरा असर सारे भारतवर्षमें हुआ होगा, यह बात मैने हैरारमें अनुभव की । मैं तो मानो चक्कीके दो पाटोंमें पिसने लगा। जहां लोग पहचानते नहीं, वहां तीसरे दर्जे के यात्रीके रूपमें मुसीबत उठाता; जहां ठहर जाता वहां दर्शनार्थियोंके प्रेमसे घबरा जाता। दोमॅसे कौनसी स्थिति अधिक दयाजनक हैं, यह मेरे लिए कहना बहुत बार मुश्किल हुआ है। हां, इतना तो जानता हूं। कि दर्शनार्थियों के प्रदर्शनसे मुझे गुस्सा आया है और मन-ही-मन तो उससे अधिक बार संताप हुआ है। तीसरे दर्जेकी मुसीबतोंसे सिर्फ मुझे कष्ट ही उठाने पड़े हैं, गुस्सा मुझे शायद ही आया हो और कष्टसे तो मेरी उन्नति ही हुई है। .इस समय मेरे शरीरमें घूमने-फिरनेकी शक्ति अच्छी थी। इससे मैं इधर-उधर ठीक-ठीक धूम-फिर सका । उस समय मैं इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ था। कि जिससे रास्ता चलना भी मुश्किल होता हो । इस भ्रमणमें मैंने लोगोंकी धर्म-भावनाकी अपेक्षा उनकी मूढ़ता, अधीरता, पाखंड और अव्यवस्थितता अधिक देखी । साधुझोंके और जमातोंके तो दल टूट पड़े थे । ऐसा मालूम होता था मानो वे महज’ मालपुए ग्रौर खीर खाने के लिए ही जनमे हों। यहां मैनें पांच पांववाली गाय देखी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुशा; परंतु अनुभवी आदमियोंने तुरंत मेरा अज्ञान दूर कर दिया। यह पांच पैरोंवाली गाय तो दुष्ट और लोभी लोगोंका शिकार थी-- बलिदान थी। जीते बछडेका पैर काटकर गायके कंधेका चमड़ा चीरकर उसमें चिपका दिया जाता था और इस दुहेरी घातक क्रियाके द्वारा भोले-भाले लोगोंको दिन-दहाड़े ठगनेका उपाय निकाला पाया था । कौन हिट्स ऐसा है, जो इस पांच पांववाली गायके दर्शनके लिए उत्सुक