पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१४

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अध्याय ७ कुंभ ३९७ न हो ? इस पांच पांववाली गायके लिए वह जितना ही दान दे उतना ही कम समझा जाता था ! अब कुंभका दिन आया । मेरे लिए वह बड़ी धन्य थी; परंतु मैं तीर्थयात्राकी भावनासे हरद्वार नहीं गया था। पवित्रताकी खोजके लिए तीर्थक्षेत्र. में जाने का भी मुझे कभी नहीं रहा। मेरा खयाल यह था कि सत्रह लाख श्रदमियोंमें सभी पाखंडी नहीं हो सकते। यह कहा जाता था कि मेलेमें सत्रह लाख आदमी इकट्ठे हुए थे । मुझे इस विषयमें कुछ संदेह नहीं था कि इनमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, अपने को शुद्ध करने के लिए, आये थे; परंतु इस प्रकारकी श्रद्धासे आत्माकी उन्नति होती होगी, यह कहना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है । | बिछौनेमें पड़ा-पड़ा में विचार-सागरमें डूब गया--- चारों ओर फैले इस पाखंडमें वे पवित्र आत्माएं भी हैं। वे लोग ईश्वरके दरबारमें दंडके पत्र नहीं माने जा सकते । ऐसे समय हरद्वारमें अना ही यदि पाप हो तो फिर मुझे प्रकटरूपसे उसका विरोध करके कुंभके दिन तो हद्वार अवश्य छोड़ ही देना चाहिए। यदि यहां आना और कुंभके दिन रहना पाप न हो तो मुझे कोई ठोर त्रत लेकर इस प्रचलित पापका प्रायश्चित करना चाहिए---अत्मशुद्धि वरनी चाहिए।' मेरा जीवन व्रतोंपर रचा गया है, इसलिए कोई कठोर व्रत लेने का निश्चय किया। इसी समय कलकता और रंगुनमें मेरे निमित्त यजमानोंको जो अनावश्यक परिश्रम करना पड़ा उसका भी स्मरण हो अथा। इस कारण भने भोजनकी वस्तुओंकी संख्या मर्यादित कर लेनेका र शामको अंधेरेके पहले भोजन कर लेने का व्रत लेना निश्चित किया । मन सोचा कि यदि में अपने भोजनकी मर्यादा नहीं रक्खू तो यजमानों के लिए बहुत असुविधाजनक होता रहूंगा और सेवा करते के बजाय उनको अपनी सेवा करनेमें लगाता रहूंगा । इसलिए चौबीस घंटोंम पांच चीजोंसे अधिक न खाने का और रात्रिभोजन-त्यागका व्रत ले लिया । दोनोंकी कठिनाईका पूरा-पूरा विचार कर लिया था। इन ब्रतोंमें एक भी अपवाद न रखने का निश्चय किया। बीमारीमें ददाके रूपमें ज्यादा चीज लेना या न लेना, ‘दवाको भोजनकी वस्तुमें गिनना या न गिनना, इन सब बातोंका विचार कर लिया, और निश्चय किया कि खाने की कोई चीज पांचसे अधिक न लेगा । इन दो व्रतोंको आज तेरह साल हो गये। इन्होंने मेरी खासी परीक्षा ली है; परंतु जहां एक