पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१५

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भ-कथा : भाग ५, और इन्होंने परीक्षा ली है तहां उन्होंने मेरे लिए ढालका भी काम दिया है। मैं मानता हूं कि इन व्रतोंने मेरी आयु बढ़ा दी है; इनकी बदौलत, भेरी धारणा है कि, मैं बहुत बार बीमारियोंसे बच गया हूँ । लक्ष्मण-झूला पहाड़-जैसे दीखनेवाले महात्मा मुंशीरामके दर्शन करने और उनके गुरुकुलको देखने जब मैं गया तब मुझे बहुत शांति मिली । हरद्वार के कोलाहल और गुरुकुलकी शांतिका भेद स्पष्ट दिखाई देता था। महात्माजीने मुझपर भरपूर प्रेमको दृष्टि की । ब्रह्मचारी लोग मेरे पाससे हटते ही नहीं थे। रामदेवजीसे भी उसी समय मलाकात हुई और उनकी कार्यशक्तिको में तुरंतु पहचान सका था। यद्यपि हमारी मत-भिन्नता हमें उस समय दिखाई पड़ गई थी, किर भी हमारे आपसमें स्नेह-गांठ बंध गई । गुरुकुलमें औद्योगिक शिक्षका प्रवेश करने की आवश्यकताके संबंधमें रामदेवजी तथा दूसरे शिक्षकोंके साश्रमें मेरा ठीक-ठीक वार्तालाप भी हुआ । इससे जल्दीही गुरुकुलको छोड़ते हुए मुझे दुःख हुआ । लक्ष्मणझूलाकी तारीक मैंने बहुत सुन रक्खी थी । ऋषिकेश गये विना हरद्वार न छोड़ने की सलाह मुझे बहुत-से लोगोंने दी। मैंने वहां पैदल जाना चाहा। एक मंजिल ऋषिकेशकी और दूसरी लक्ष्मण-झूलेकी की । ऋषिकेशमें बहुत से संन्यासी मिलनेके लिये आये थे। उनमेंसे एकको मेरे जीवन-क्रममें बहुत दिलचस्पी पैदा हुई । फिनिक्स-मंडली मेरे साथ थी ही। हम सबको देखकर उन्होंने बहुतेरे प्रश्न पूछे। हम लोगोंमें धर्म-चर्चा भी हुई। उन्होंने देख लिया कि मेरे अंदर तीव्र धर्मभाव है। मैं गंगा-स्नान करके आया था और मेरा शरीर खुला था। उन्होंने मेरे सिरपर न चोटी देखी और न बदनपर. जनेऊ। इससे उन्हें दुःख हुआ और उन्होंने कहा---

  • आप हैं तो आस्तिक, परंतु शिखा-सूत्र नहीं रखते, इससे हम जैसोंको दुःख होता है। हिंदू-धर्मकी ये दो बाह्य संज्ञाएं हैं और प्रत्येक हिंदूको इन्हें धारण ।