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पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१६

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अध्याय ८ : लम-झूला करना चाहिए । जब मेरी उमर कोई दस वर्षकी रही होगी तब पोरबंदरमें ब्राह्मणोंके जनेऊसे बंधी चाबियोंकी झंकार मैं सुना करता था और उसकी मुझे ईष्र्या भी होती थी । मनमें यह भाव उठा करता कि मैं भी इसी तरह जनेऊमें चाबियां लटकाकर झंकार किया करूं तो अच्छा हो । काठियावाड़के वैश्य कुटुंबोंमें उस समय जनेऊका रिवाज नहीं था। हां, नये सिरेसे इस बातका प्रचार अलबत्ता हो रहा था किं द्विज-मात्रको जनेऊ अवश्य पहनना चाहिए। उसके फलस्वरूप गांधी-कुटुंबके कितने ही लोग जनेऊ पहनने लगे थे। जिन ब्राह्मणने हम दो-तीन सगे संबंधियों को राम-रक्षाका पाठ सिखाया था, उन्होंने हमें जनेऊ पहनाया। मुझे अपने पास चाबियां रखनेका कोई प्रयोजन नहीं था । तो भी मैने दो-तीन चाबियां लुटका लीं । जब वह जनेऊ टूट गया तब उसका मोह उतर गया था या नहीं, यह तो याद नहीं पड़ता, परंतु मैने नया जनेऊ फिर नहीं पहना । । . बड़ी उमरमें दूसरे लोगोंने फिर हिंदुस्तानमें तथा दक्षिण अफ्रीका में जनेऊ पहनानेका प्रयत्न किया था, परंतु उनकी दलीलोंका असर मेरे दिलर नहीं हुआ। शूद्र यदि जनेऊ नहीं पहन सकता तो फिर दूसरे लोगों को क्यों पहनना चाहिए ? जिस बाह्य चिह्नका रिवाज हमारे कुटुंबमें नहीं था उसे धारण करने का एक भी सबल कारण मुझे नहीं दिखाई दिया। मुझे जनेऊसे अरुचि नहीं थी, परंतु उसे पहननेके कारणोंका अभाव मालूम होता था। हां, वैष्णव होने के कारण मैं कंठी जरूर पहनता था । शिखा तो घरके बड़े-बूढ़े हम भाइयोंके सिरपर रखबाते थे, परंतु विलायतमें सिर खुला रखना पड़ता था। गोरे लोग देखकर हंसेंगे और हमें जंगल समझेंगे, इस शर्मसे शिखा कटा डाली थी। मेरे भतीजे छगनलाल गांधी, जो दक्षिण अफ्रीका में मेरे साथ रहते थे, बड़े भावके साथ शिला रख रहे थे; परंतु इस वहमसे कि उनकी शिखा वहां सार्वजनिक कामों में बाधा डालेगी, मैंने उनके दिलको दुखाकर भी छुड़ा दी थी। इस तरह शिखासे मुझे उस समय शर्म लगती थी । | इन स्वामीजीसे मैंने यह सब कथा सुनाकर कहा---- | " जनेऊ तो में धारण नहीं करूंगा; क्योंकि असंख्य हिंदू जनेऊ नहीं पहनते हैं फिर भी वे हिंदू समझे जाते हैं, तो फिर मैं अपने लिए उसकी जरूरत