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पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१८

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बिगाड़ते हुए भी उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जानेवाले आम जगह और रास्तोंपर ही बैठ जाते, यह देखकर मेरे चित्तको बड़ी चोट पहुंची।


लक्ष्मण-झूला जाते हुए रास्तेमें लोहेका एक झूलता हुआ पुल देखा। . लोगोंसे मालूम हुआ कि पहले यह पुल रस्सीका और बहुत मजबूत था, उसे तोड़कर एक उदार-हृदय मारवाड़ी सज्जनने बहुत रुपये लगाकर यह लोहेका पुल बना दिया और उसकी कुंजी सौंप दी सरकारको ! रस्सीके पुलका तो मुझे कुछ खयाल नहीं हो सकता, परंतु यह लोहेका पुल तो वहांके प्राकृतिक सौंदर्यको कलुषित करता था और बहुत भद्दा मालूम होता था। फिर यात्रियोंके इस रास्तेकी कुंजी सरकारको सौंप दी गई, यह बात तो मेरी उस समयकी वफादारीको भी असह्य मालूम हुई ।

वहांसे भी अधिक दुःखद दृश्य स्वर्गाश्रमका था। टीनके तले-जैसे कमरोंका नाम स्वर्गाश्रम रक्खा गया था। कहा गया था कि ये साधकोंके लिए बनाये गये हैं; परंतु उस समय शायद ही कोई साधक वहाँ रहता हो। वहांकी मुख्य इमारतमें जो लोग रहते थे उन्होंने भी मेरे दिलपर अच्छी छाप नहीं डाली।

जो हो; पर इसमें संदेह नहीं कि हरद्वारके अनुभव मेरे लिए अमूल्य साबित हुए। मैं कहां जाकर बसूं और क्या करू, इसका निश्चय करने में हरिद्वारके :: अनुभवोंने मुझे बहुत सहायता दी ।

आश्रमकी स्थापना .:

कुंभकी यात्राके पहले मैं एक बार और हरद्वार आ चुका था। सत्याग्रहआश्रमकी स्थापना २५ मई १९१५ को हुई। श्रद्धानंदजीकी. यह राय थी कि मैं हरद्वारमें बसू । कलकत्तेके कुछ मित्रोंकी सलाह थी कि वैद्यनाथ-धाममें डेरा डालूं । और कुछ मित्र इस बातपर जोर दे रहे थे कि राजकोटमें रहूं।. पर जब मैं अहमदाबादसे गुजरा तो बहुतेरे मित्रोंने कहा कि आप अहमदाबादको चुनिए। और आश्रमके खर्चका भार भी अपने जिम्मे उन्होंने ले लिया। मकान खोजनेका भी आश्वासन दिया । ....