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आत्म-कथा : भाग १


उस मित्रके जिम्मे रहा था। मुझे आजतक खबर नहीं कि उसने कहांसे इंतजाम किया था। उसका इरादा तो था मुझे मांसकी चाट लगा देना, मुझे भ्रष्ट कर देना। इसलिए खर्चका भार वह खुद ही उठाता था। पर उसके पास भी अटूट खजाना तो था नहीं, इस कारण ऐसे भोजनोंके अवसर कभी-कभी ही आते।

जब-जब ऐसे भोजनोंमें शरीक होता तब-तब घर खाना न खाया जाता। जब मां खानेको बुलाती तो बहाना करना पड़ता, आज भूख नहीं, खाना पचा नहीं। जब-जब ये बहाने बनाने पड़ते तब-तब मेरे दिलको सख्त चोट पहुंचती। इतनी झूठ बात, फिर मांके सामने। फिर यदि मां-बाप जान जाएं कि लड़के मांस खाने लग गये हैं, तब तो उनपर बिजली ही टूट पड़ेगी। ये विचार मेरे हृदयको हरदम नोचते रहते। इस कारण मैंने निश्चय किया कि मांस खाना तो आवश्यक हैं, उसका प्रचार करके हिंदुस्तानको सुधारना भी आवश्यक है, पर माता-पिताको धोखा देना और झूठ बोलना मांस न खानेसे भी ज्यादा बुरा है। इसलिए माता-पिताके जीतेजी मांस न खाना चाहिए। उनकी मृत्युके बाद, स्वतंत्र हो जानेपर खुल्लम-खुल्ला खाना चाहिए; और जबतक वह समय न आवे मांसके रास्ते न जाना चाहिए। यह निश्चय मैंने अपने मित्र पर प्रकट कर दिया। उस दिनसे जो मांसाहार छूटा सो छूटा ही। हमारे माता-पिताने कभी नही जाना कि उनके दो पुत्र मांस खा चुके हैं।

माता-पिताको धोखा न देनेके शुभ विचारसे मैंने मांसाहार तो छोड़ा, परंतु उस मित्रकी मित्रता न छोड़ी। मैं जो दूसरोंको सुधारनेके लिए आगे बढ़ा था सो खुद ही बिगड़ गया और सो भी ऐसा कि बिगड़ जानेका भानतक न रहा।

उसीकी मित्रताके कारण मैं व्यभिचारमें भी फंस जाता। एक बार यही महाशय मुझे चकलेमें ले गये। वहां एक बाईके मकानमें जरुरी बातें समझाकर भेजा। पैसे देना-दिवाना मुझे कुछ न था। वह सब पहले ही हो चुका था। मेरे लिए तो सिर्फ एकांत लीला करनी बाकी थी।

मैं मकानमें दाखिल तो हो गया, पर ईश्वर जिसे बचाना चाहता है वह गिरनेकी इच्छा करते हुए भी बच सकता है। उस कमरेमें जाकर मैं तो मानो अंधा बन गया। कुछ बोलनेका ही औसान न रहा। मारे शरमके चुपचाप उस बाईकी खटियापर बैठ गया। एक लफ्जतक जबानसे न निकला। बाई