पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४२०

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अध्याय १० : कसौटीपर ४०३ में सर गुरुदास बनर्जीकी राय मुझे याद रह गई है। उन्हें नियमावली पसंद आई; परंतु उन्होंने सुझाया कि इन व्रतोंमें नम्रताके व्रतको भी स्थान मिलना चाहिए । उनके पत्र की ध्वनि यह थी कि हमारे युवकवर्गमें नम्रताकी कमी है। मैं भी जगह-जगह नम्रताके अभावको अनुभव कर रहा था; मगर व्रतमें स्थान देने नम्रताके नम्रता न रह जानेका आभास होता था । नम्रताका पूरा अर्थ तो है। शून्यता । शून्यता प्राप्त करनेके लिए दूसरे व्रत होते हैं। शून्यता मोक्षकी स्थिति है। मुमुक्षु या सेवकके प्रत्येक कार्य यदि नम्रता-निरभिमानतासे न हों तो वह मुमुक्षु नहीं, सेवक नहीं, वह स्वार्थी हैं, अहंकारी है । | आश्रममें इस समय लगभग तेरह तामिल लोग थे । मेरे साथ दक्षिण अफ्रीकासे पांच तामिल वालक अाये। वे तथा यहांके लगभग पच्चीस स्त्रीपुरुष मिलकर आश्रमका प्रारंभ हुआ था। सब एक भोजनशालामें भोजन करते थे और इस तरह रहनेका प्रयत्न करते थे, मानो सब एक ही कुटुंबके हों। कसौटीपर आश्रमकी स्थापनाको अभी कुछ ही महीने हुए थे कि इतनेमें हमारी एक ऐसी कसौटी हो गई, जिसकी हमने अाशा नहीं की थी । एक दिन मुझे भाई अमृतलाल ठक्करका पत्र मिला---एक गरीब और दयानतदार अंत्यज कुटुंबकी इच्छा आपके आश्रममें आकर रहने की है। क्या आप उसे ले सकेंगे ?' . चिट्ठी पढ़कर मैं चौंका तो; क्योंकि मैंने यह बिलकुल अशा न की थी कि ठक्कर बाप-जैसोंकी सिफारिश लेकर कोई अंत्यज कुटुंब इतनी जल्दी र जायगा। मैंने साथियों को यह चिट्ठी दिखाई। उन लोगों ने उसका स्वागत किया। मैंने अमृतलालभाईको चिट्ठी लिखी कि यदि वह कुटुंब आश्रमके नियमोंका पालन करने के लिए तैयार हो तो हम उसे लेनेके लिए तैयार हैं । बस, दूधाभाई, उनकी पत्नी दानीबहन और दुधमुंही लक्ष्मी आश्रममें आ गये । दूधाभाई बंबईमें शिक्षक थे । वह आश्रमके नियमोंका पालन करनेके : ‘लिए तैयार थे। इसलिए वह आश्रममें ले लिये गये ।