पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४२३

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आत्म-कथर : भाग ५ इसी प्रश्नके संबंधों एक और बात भी आश्रममें स्पष्ट हो गई। इस विषयमें जो-जो नाजुक सवाल पैदा हुए उनका भी हल मिला। कितनी ही अकल्पित असुविधाअोंका स्वागत करना पड़ा । ये तथा और भी सत्यकी शोधके सिलसिले में हुए प्रयोगोंका वर्णन आवश्यक तो है; पर मैं उन्हें यहां छोड़ देता हूं । इस बातर मुझे दुःख तो है; परंतु अब आगेके अध्यायोंमें यह दोष थोड़ा-बहुत रहता ही रहेगा--- कुछ जरूरी बातें मुझे छोड़ देनी पड़ेगी; क्योंकि उनमें योग देने वाले बहुतेरे पत्र अभी मौजूद हैं और उनकी इजाजतके बिना उनके नाम और उनसे संबंध रखनंवाली बातोंका वर्णन आजादीसे करना अनुचित मालूम होता हैं। सबकी स्वीकृति समय-समयपर मांगना अथवा उनसे संबंध रखनेवाली बाते उनको भेजकर सुधरवाना एक असंभव बात हैं, फिर यह इस आत्मकथाकी मर्यादाके भी बाहर है। इसलिए अब अागेकी कथा यद्यपि मेरी दृष्टि सत्यके शोधकके लिए जानने योग्य है, फिर भी मुझे डर है कि वह अधूरी छपती रहेगी। इतना होते हुए भी ईश्वरकी इच्छा होगी तो असहयोगके युगतक पहुंचनेकी मेरी इच्छा व आशा है । । गिरमिट-प्रथा अब इस नये बसे हुए श्रमको छोड़ कर, जो कि अब भीतरी और बाहरी तूफानोंसे निकल चुका था, गिरमिट-प्रथा या कुली-प्रथापर थोड़ा-सा विचार करनेका समय आ गया है। गिरमिटिया उस कुली या मजूरको कहते हैं, जो पांच या उससे कम वर्षके लिए मजूरी करने का लेखी इकरार करके भारतके बाहर चला जाता है। नेटालके ऐसे गिरमिटियों परसे तीन पौंडका वार्षिक कर १९१४में उठा दिया गया था; परंतु यह प्रथा अभी बंद नहीं हुई थी । १९१६ में भारतभूषण पंडित मालवीयजीन इस सवालको धारा-सभामें उठाया था, और लाडे हाडंजने उनके प्रस्तावको स्वीकार करके यह घोषणा की थी यह प्रथा ‘समय आते ही उठा देनेका वचन मुझे सम्राट्की ओर से मिला है। परंतु मेरी तो यह स्पष्ट मोटेरेया कि इस प्रथाको तत्काल बंद कर देनेका निर्णय हो जाना चाहिए । हिंदु नों परवाही से इस प्रथाको बहुत वर्षोंतक दरगुजर करता रहा।