पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ॐ१-ॐथ : भाग ५ मेरा खड़ा रहना भी बरदाश्त नहीं होता था, हालांकि वे खुद ऊपरकी बैठक में झारामसे पैर ताने पड़े हुए थे ! पर मुझे बार-बार दिक करते थे । ज्यों-ज्यों वे मुझे दिक करते त्यों-त्यों मैं उन्हें शांतिसे जवाब देता । इससे वे कुछ शांत हुए । फिर मेरा नामठमि पूछने लगे । जब मुझे अपना नाम बताना पड़ा तब वे बड़े शमिंदा हुए। मुझसे माफी मांगने लगे और तुरंत अपने पास जगह कर दी है। ‘सबरको फल मीठा होता है--- यह कहावत मुझे याद आई। इस समय मैं बहुत थक गया था। मेरा सिर घूम रहा था । जब बैठनेको जगहकी सचमुच जरूरत थी तब ईश्वरने उसको सुविधा कर दी । इस तरह धक्के खाता हुआ आखिर समयपर कलकत्ते पहुंच गया है। कासिमबाजारके महाराजने अपने यहां ठहरनेक मुझे निमंत्रण दे रक्खा था । कलकत्तेकी सभाके सभापति भी वही थे । कराचीकी तरह कलकतेमें भी लोगोंका उत्साह उमड़ रहा था, कुछ अंग्रेज लोग भी आये थे । इकत्तीस जुलाईके पहले कुली-प्रथा बंद होनेकी घोषणा प्रकाशित हुई । १८९४ में इस प्रथाका विरोध करनेके लिए पहली दरखास्त मैंने बनाई थी और यह आशा रक्खी थी कि किसी दिन यह ‘अर्ध-गुलामी' जरूर रद हो जायगी । १८९४में शुरू हुए इस कार्यमें यद्यपि बहुतेरे लोगोंकी सहायता था; परंतु यह कहे बिना नहीं रह जाता कि इस बारके प्रयत्नके साथ शुद्ध सत्याग्रह भी सम्मिलित था । इस घटनाका अधिका ब्यौरा और उसमें भाग लेनेवाले पात्रोंका परिचय दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रहके इतिहासमें पाठकोंको मिलेगा । नीलका दाग २ चंपारन राजा जनककी भूमि हैं । चंपारनमें जैसे आपके बन हैं उसी । तरह, १९१७में नीलके खेत थे। चंपारनके किसान अपनी ही जमीनके ३/२०. हिस्से में नीलकी खेती जमीनके असली मालिकके लिएं करनेपर कानूनन बाध्य थे। इसे वहां 'तीन कुठिया' कहते थे । २० कट्ठेका वहां एक एकड़ था और उसमें से ३ कट्छे नील बोना पड़ता था । इसीलिए उस प्रथाको नाम पड़ गया था।