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अध्याय ७ : दु:खद प्रसंग-२


झल्लाई और मुझे दो-चार बुरी-भली सुनाकर सीधा दरवाज़े का रास्ता दिखलाया।

उस समय तो मुझे लगा, मानो मेरी मर्दानगी पर लांछन लग गया, और धरती फट जाय तो मैं उसमें समा जाऊं। परंतु बादको, इससे मुझे उबार लेने पर, मैंने ईश्वरका सदा उपकार माना है। मेरे जीवनमें ऐसे ही चार प्रसंग और आये हैं। बहुतोंमें मैं बिना प्रयत्नके, दैवयोगसे, बच गया हूं। विशुद्ध दृष्टि से तो इन अवसरोंपर मैं गिरा ही समझा जा सकता हूं; क्योंकि विषयकी इच्छा करते ही मै उसका भोग तो कर चुका। फिर भी लौकिक दृष्टिसे हम उस आदमीको बचा हुआ ही मानते हैं जो इच्छा करते हुए भी प्रत्यक्ष कर्म से बच जाता है। और मैं इन अवसरोंपर इसी तरह, इतने ही अंशतक, बचा हुआ समझा जा सकता हूं। फिर कितने ही काम ऐसे होते हैं, जिनके करनेसे बचना व्यक्तिके तथा उसके संपर्कमें आनेवाले लोगों के लिए बहुत लाभदायक साबित होता है। और जब विचार-शुद्धि हो जाती है तब उस कर्मसे बच जानेको वह ईश्वरका अनुग्रह मानता है । जिस प्रकार हम यह अनुभव करते हैं कि न गिरनेका यत्न करते हुए भी मनुष्य गिर जाता है उसी प्रकार पतनकी इच्छा हो जानेपर भी अनेक कारणों से मनुष्य बच जाता है। यह भी अनुभव सिद्ध है। इसमें कहां पुरुषार्थके लिए स्थान है, कहां दैवके लिए, अथवा किन नियमोंके वशवर्ती होकर मनुष्य अंतमें गिरता है, या बचता है, ये प्रश्न गूढ़ हैं। ये आजतक हल नहीं हो सके हैं; और यह कहना कठिन है कि इनका अंतिम निर्णय हो सकेगा या नहीं।

पर हम आगे चलें।

मुझे अब भी इस बातका भान न हुआ था कि इस मित्रकी मित्रता अनिष्ट है। अभी और कड़ुए अनुभव होने बाकी थे। यह तो मुझे तभी मालूम हुआ, जब मैने उनके ऐसे दोषोंका प्रत्यक्ष अनुभव किया, जिसकी मुझे कभी कल्पनातक न हुई थी। पर मैं जहांतक हो, समयानुक्रमसे अपने अनुभव लिख रहा हूं, इसलिए वे बातें आगे समयपर आ जावेंगी।

एक बात तो इसी समयकी है, जो यहीं कह दूं। हम दंपतिमें जो कितनी ही बार मतभेद और मनमुटाव हो जाया करता, उसका कारण यह मित्रता भी थी। मैं पहले कह चुका हूं कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति भी था।