पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४३२

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अध्याय १३ : बिहारकी सरलता के द्वारा वह कुछ व्यक्तियोंको राहत दिलाते थे; पर कभी-कभी इसमें भी असफल हो जाते थे। इन भोले-भाले किसानोंसे वह फीस लिया करते थे । त्यागी होते हुए भी बृजकिशोरबाबू या राजेंद्रबाबू फीस लेने में संकोच न करते थे । “पेशेके काममें अगर फीस न लें तो हमारा घर-खर्च नहीं चल सकता और ह लोगोंकी मदद भी नहीं कर सकते।" यह उनकी दलील थी। उनकी तथा बंगाल-बिहारके बैरिस्टरोंकी फीसके कल्पनातीत अंक सुनकर मैं तो चकित रह गया । ...को हमने 'ओपीनियन के लिए दस हजार रुपये दिये ।" हजारों सिवाय तो मैंने बात ही नहीं सुनी । | इस मिडलने इस विषय में मेरा मीठा उलाहना प्रेमके साथ सुना । उन्होंने उसका लेटा अर्थ नहीं लगाया । मैंने कहा- “इन सुकदमोंकी मिसलें देखने के बाद मेरी तो यह राय होती है कि हम यह मुकदमेबाजी अब छोड़ दें। ऐसे मुकदमोंसे बहुत कम लाभ होता है। जहां प्रजा इतनी कुचली जाती है, जहां सब लोग इतने भयभीत रहते हैं, वहां अदालतोंके द्वारा बहुत कम राहत मिल सकती है । इसका सच्चा इलाज तो है लोगोंके दिलसे डरको निकाल देना। इसलिए अब जबतक यह ‘तीन कठिया प्रथा मिट नहीं जाती तबतक हम आरामसे नहीं बैठ सकते । मैं तो अभी दो दिनमें जितना देख सकू, देखने के लिए आया हूं; परंतु मैं देखता हूं। कि इस काममें दो वर्ष भी लग सकते हैं; परंतु इतने समयकी भी जरूरत हो तो में देनेके लिए तैयार हूं। यह तो मुझे सुझ रहा है कि मुझे क्या करना चाहिए। परंतु आपकी मददकी जरूरत है।” • मैंने देखा कि बृजकिशोरबाबू निश्चित विचारके आदमी हैं। उन्होंने शांतिके साथ उत्तर दिया--- "हमसे जो-कुछ बन सकेगी वह मदद हम जरूर करेंगे; परंतु हमें आप बतलाइए कि आप किस तरहकी मदद चाहते हैं । हम लोग रातभर बैठकर इस विषयपर विचार करते रहे। मैंने कहा--- “मुझे आपकी वकालतकी सहायताकी जरूरत कम होगी । आप-जैससे मैं लेखक और दुभाषियेके रूपमें सहायता चाहता हूं। संभव हैं, इस काममें जेल जाने की भी नौबत आ जाय। यदि आप इस जोखिममें पड़ सकें तो मैं इसे पसंद, क़रूभा; परंतु यदि अपि न पड़ना चाहें तो भी कोई बात नहीं । वकालत को