पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४३३

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४१६ आत्म-कथा : भाग ५ अनिश्चित समयके लिए बंद करके लेखकके रूपमें काम करना भी मेरी कुछ कम मांग नहीं है । यहांकी बोली समझने में मुझे बहुत दिक्कत पड़ती है। कागजपत्र सब उर्दू या कॅथीमें लिखे होते हैं, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकता। उनके अनुवादकी मैं आपसे माशा रखता हूँ । रुपये देकर यह काम कराना चाहें तो अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह सब सेवा-भावसे, बिना पैसेके, होना चाहिए । बृजकिशोरबाबू मेरी बातको समझ तो गये; परंतु उन्होंने मुझसे तथा अपने साथियोंसे जिरह शुरू की । मेरी बातोंका फलितार्थ उन्हें बताया । मुझसे पूछा--- "आपके अंदाजमें कबतक वकीलोंको यह त्याग करना चाहिए, कितना करना चाहिए, थोड़े-थोड़े लोग थोड़ी-थोड़ी अवधिके लिए ऋतेि रहें तो काम चलेगा या नहीं ?" इत्यादि । वकीलोंसे उन्होंने पूछा कि लोग कितनाकितना त्याग कर सकेंगे ? अंतमें उन्होंने अपना यह निश्चय प्रकट किया- “हम इतने लोग तो आप जो काम सौंपेंगे करने के लिए तैयार रहेंगे। इनमें से जितनोंको श्राप जिस समय चाहेंगे आपके पास हाजिर रहेंगे। जेल जानेकी बात अलबत्ता हमारे लिए नई है; पर उसकी भी हिम्मत करनेकी हम कोशिश करेंगे ।" अहिंसादेवीको साक्षात्कार । मुझे तो किसानोंकी हालतकी जांच करनी थी । यह देखना था कि नीलके मालिकोंकी जो शिकायत किसानोंको थी, उसमें कितनी सचाई है। इसमें हजारों किसानों से मिलनेकी जरूरत थी; परंतु इस तरह आमतौरपर उनसे मिलने-जुलनेके पहले, निलहे मालिकोंकी बात सुन लेने और कमिश्नरसे मिलनेकी आवश्यकता मुझे दिखाई दी। मैंने दोनोंको चिट्ठी लिखी । .:: मालिकोंके मंडलके मंत्रीसे मिला तो उन्होंने मुझे साफ कह दिया, “आप तो बाहरी आदमी हैं। आपको हमारे और किसानोंके झगड़ेमें न.पुड़ना चाहिए। फिर भी यदि आपको कुछ कहना हो तो लिखकर भेज दीजिएगा।" मैंने मंत्रीसे सौजन्यके साथ कहा--- " मैं अपने को बाहरी श्रादमी नहीं समझती और किसान