पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४४२

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अध्याय १६ : कार्य-पद्धति ४२५ झुंड-के-झुंड अपनी कहानी लिखाने के लिए आने लगे थे । एक-एक कहानी लिखने-वाले के साथ एक भीड़-सी रहती थी । इससे मकान का चौगान भर जाता था । मुझे दर्शनाभिलाषियोंसे बचाने के लिए साथी लोग बहुत प्रयत्न करते; परंतु वे निष्फल हो जाते । एक निश्चित समय पर दर्शन देनेके लिए मुझे बाहर लानेपर ही पिंड छूटता था । कहानी-लेखक हमेशा पांच-सात रहते थे । फिर भी शाम तक सबके बयान पूरे न हो पाते थे । यों इतने सब लोगों के बयानों की जरूरत नहीं थी; फिर भी उनके लिख लेनेसे लोगोंको संतोष हो जाता था और मुझे उनके मनोभावोंका पता लग जाता था । कहानी-लेखकों कुछ नियम पालन करने पड़ते थे । वे ये थे-- “प्रत्येक किसान से जिरह करनी चाहिए । जिरह में जो गिर जाय उसका बयान न लिखा जाय । जिसकी बात शुरू से ही कमजोर पाई जाय वह न लिखी जाय । ” इन नियमों के पालन से यद्यपि कुछ समय अधिक जाता था फिर भी उससे सच्चे और साबित होने लायक बयान ही लिखे जाते थे । जब ये बयान लिखे जाते तो खुफिया पुलिस के कोई-न-कोई कर्मचारी वहां मौजूद रहते । इन कर्मचारियों को हम रोक सकते थे; परंतु हमने शुरूसे यह निश्चय किया था कि उन्हें न रोका जाय । यही नहीं बल्कि उनके प्रति सौजन्य रखा जाए और जो खबरें उन्हें दी जा सकती हों दी जायं । जो बयान लिये जाते उनको वे देखते और सुनते थे । इससे लाभ यह हुआ कि लोगों में अधिक निर्भयता आ गई । और बयान उनके सामने लिये जानेसे अत्युकता भय क्म रह्ता था । इस डरसे कि झूठ बोलेंगे तो पुलिसवाले फंसा देंगे, उन्हें सोच-समझकर बोलना पड़ता था । - मै निलहे मालिकों को चिढ़ाना नहीं चाहता था; बल्कि अपने सौजन्यसे उन्हें जीतने का प्रयत्न करता था । इसलिए जिनके बारेमें विशेष शिकायतें होती, उन्हें मैं चिट्ठी लिखता और मिलने की कोशिश भी करता । उनके मंडल से भी मैं मिला था और रैय्यतकी शिकायतें उनके सामने पेश की थीं और उनका कहना भी सुन लिया था । उनमें से कितने तो मेरा तिरस्कार करते थे, कितने ही उदासीन थे और बाज-बाज सौजन्य भी दिखाते थे ।