पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४४६

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अध्याय १८ : ग्राम-प्रवेश ४२९ जीभ मैली दिखाई दे और कब्जकी शिकायत हो तो अंडीका तेल पिला देना, बुखारकी शिकायत हो तो अंडीका तेल पिलानेके बाद कुनैन पिला देना और फोड़े-फुंसी हों तो उन्हें धोकर मरहम लगा देना, बस इतना ही काम था । खानेकी दवा या पिलानेकी दवा किसीको घर ले जाने के लिए शायद ही दी जाती थी । कोई ऐसी बीमारी हो जो समझमें नहीं आयी हो या जिसमें कुछ जोखिम हो, तो डा० देवको दिखा लिया जाता । डा० देव नियमित समयपर जगह-जगह जाते । इस सादी सुविधासे लोग ठीक-ठीक लाभ उठाते थे । आमतौरपर फैली हुई बीमारियों की संख्या कम ही होती हैं और उनके लिए बड़े विशारदोंकी जरूरत नहीं होती । यह बात अगर ध्यानमें रक्खी जाय तो पूर्वोक्त योजना किसी को हास्यजनक न मालूम होगी । वहांके लोगोंको तो नहीं मालूम हुई ।

परंतु सुधार-काम कठिन था । लोग गंदगी दूर करने के लिए तैयार नहीं होते थे । अपने हाथसे मैला साफ करने के लिए वे लोग भी तैयार न होते थे, जो रोज खेतपर मजदूरी करते थे; परंतु डा० देव झट निराश होने वाले जीव नहीं थे । उन्होंने खुद तथा स्वयं-सेवकोंने मिलकर एक गांवके रास्ते साफ किये, लोगोंके आँगनसे कूड़ा-करकट निकाला, कुएंके आसपासके गढ़े भरे, कीचड़ निकाली और गांवके लोगोंको प्रेमपूर्वक समझाते रहे कि इस कामके लिए स्वयं-सेवक दो । कहीं लोगोंने शरम खाकर काम करना शुरू भी किया और कहीं-कहीं तो लोगोंने मेरी मोटरके लिए रास्ता भी खुद ही ठीक कर दिया । इन मीठे अनुभवोंके साथ ही लोगोंकी लापरवाहीके कडुए अनुभव भी मिलते जाते थे । मुझे याद है कि यह सुधारकी बात सुनकर कितनी ही जगह लोगोंके मनमें अरुचि भी पैदा हुई थी । 
इस जगह एक अनुभवका वर्णन करना अनुचित न होगा, हालांकि उसका जिक्र मैंने स्त्रियोंकी कितनी ही सभाश्रोंमें किया है । भीतिहरवा नामक एक छोटा-सा गांव है । उसके पास उससे भी छोटा एक गांव है । वहां कितनी ही बहनोंके कपड़े बहुत मैले दिखाई दिये । मैंने कस्तूरबाईसे कहा कि इनको कपड़े धोने और बदलनेके लिए समझाओ । उसने उनसे बातचीत की तो एक बहन उसे अपने झोंपड़ेमें ले गई और बोली कि “ देखो, यहां कोई संदूक या आलमारी नहीं कि जिसमें कोई कपड़े रक्खे हों । मेरे पास सिर्फ यह एक ही धोती है, जिसे मैं पहने हूं । अब में इसको किस तरह धोऊं ? महात्माजीसे कहो कि हमें कपड़े