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४३४ आत्म-कथा: भाग ५
हुआ । श्रीमती अनसूया बहनको अपने सगे भाईके साथ लड़नेका प्रसंग आगया था । मजूरों और मालिकोंके इस दारुण युद्धमें श्री अंबालाल साराभाईने मुख्य भाग लिया था । मिल-मालिकोंके साथ मेरा मीठा संबंध था । उनके साथ लड़ना मेरे लिए विषम काम था । मैंने उनसे आपसमें बातचीत करके अनुरोध किया कि पंच बनाकर मजदूरोंकी मांगका फैसला कर लीजिए; परंतु मालिकोंने अपने और मजदूरोंके बीचमें पंचकी मध्यस्थताके औचित्यको पसंद न किया।
तब मजदूरोंको मैंने हड़ताल कर देनेकी सलाह दी । यह सलाह देनेके पहले मैंने मजदूरों और उनके नेताओंसे काफी पहचान और बातचीत कर ली थी । उन्हें मैंने हड़तालकी नीचे लिखी शर्ते समझाई- (१) किसी हालतमें शांति भंग न करना । (२) जो कामपर जाना चाहें उनके साथ किसी किस्मकी ज्यादती या जवरदस्ती न करना। (३) मजदूर भिक्षान्न न खावें । (४) हड़ताल चाहे जबतक करना पड़े, पर वे दृढ़ रहें और जब रुपया-पैसा न रहे तो दूसरी मजदूरी करके पेट पालें । अगुप्रा लोग इन शर्तोको समझ गये और उन्हें ये पसंद भी आई । अब मजदूरोंने एक प्राम सभा की और उसमें प्रस्ताव किया कि जबतक हमारी मांग स्वीकार न की जाय अथवा उसपर विचार करनेके लिए पंच न मुकरैर हों तबतक हम काम पर न जायेंगे । इस हड़तालमें मेरा परिचय श्री वल्लभभाई पटेल और श्री शंकरलाल बैंकरसे बहुत अच्छी तरह हो गया । श्रीमती अनसूया बहनसे तो मेरा परिचय पहले ही खूब हो चुका था । हड़तालियोंकी सभा रोज साबरमतीके किनारे एक पेड़के नीचे होने लगी । वे सैकड़ोंकी संख्या में आते । मैं रोज उन्हें अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण कराता । शांति रखने और स्व-मानकी रक्षा करनेकी आवश्यक्ता उन्हें समझाता । वे अपना 'एक टेक'का झंडा लेकर रोज शहरमें जलूस निकालते और सभामें आते । यह हड़ताल २१ दिन चली । इस बीच में समय-समयपर मालिकोंसे